Sunday 15 September 2013

2014 - भाजपा मुक्त भारत की ओर - आशुतोष कुमार



मैंने आजीवन आडवानी से नफरत की है. अगले जन्मों में भी करूँगा.(अगर विधाता ने मुझे और जन्म देने का दुस्साहस किया.)
क्योंकि वे बाबरी मस्जिद-विध्वंस के मुख्य खलनायक हैं.
विध्वंस विभाजन के बाद देश की सब से बड़ी दुर्घटना है.
विभाजन तो ज्यादातर देश की जमीन पर हुआ था, विध्वंस हुआ था अंतर्मन में. 
आज़ादी के बाद के सब से बड़ा जनसंहार गुजरात २००२ के लिए भी मोदी से ज़्यादा आडवानी जिम्मेवार हैं, क्योंकि वह भी आखिरकार विध्वंस का ही एक सियासी नतीजा था.
लेकिन शैतान को भी उसका हक मिलना चाहिए - यह एक अंग्रेज़ी कहावत है.
इस लिहाज से भाजपा के लिए आडवानी से अधिक पूजनीय कोई और नेता नहीं हो सकता. उन्होंने अकेले दम पर एक नामनिहाल पार्टी को राष्ट्रीय राजनीतिक शक्ति में बदल दिया. भले ही बाबरी आन्दोलन जैसे कलंकित अभियान की बदौलत.
उस वक्त वे चाहते तो भाजपा का पीएम उम्मीदवार बनने से उन्हें अटलबिहारी भी न रोक सकते थे, जैसे आज मोदी को खुद आडवानी नहीं रोक पाए.
लेकिन आडवानी ने दूरगामी पार्टीहित का ख्याल कर न केवल ऐसी कोई कोशिश न की, बल्कि खुद ही अटल का नाम आगे कर दिया. भाजपा के लिहाज से यह सही कदम था, क्योंकि समावेशी भारतीय संस्कृति में फिरकापरस्ती कुछ समय की ताकत तो दे सकती है, लेकिन दूर तक टिकी रहने वाली जमीन नहीं.

इसी समझ को वे एनडीए - एजेंडा, जिन्ना-बयान आदि से आगे बढाते हुए एक 'राइट टू द सेंटर ' ( मध्य-दक्षिण ) पार्टी के रूप में भाजपा को एक राष्ट्रीय विकल्प की तरह तैयार करने में जुटे रहे.
आज भाजपा में इस बात को समझने वाला उनके सिवा और कोई चिड़िया का पूत नहीं है.
आडवानी के जीवन भर के कामकाज को समझने वाला कोई बंदा यह नहीं कह सकता कि उनका मोदी की उम्मीदवारी का विरोध कुर्सी की लालसा के चलते है.
बल्कि यह ठीक उसी समझदारी के चलते है, जिस से एक समय उन्होंने खुद की जगह अटल का नाम आगे किया था. अगर तब उन्होंने ऐसा न किया होता तो भाजपा आज भी बस एक नामनिहाल पार्टी ही होती.
 
आज भाजपा उस आडवानी को एक खास जगह पर पाद-प्रहार का निशाना बनाते हुए, एक ऐसे आदमी के सामने बिछी जा रही है, जिसने जीवन भर विचारधारा, पार्टी और वफादारी जैसी चीजों को सिर्फ और सिर्फ खुद अपने को आगे बढाने के लिए पूरी बेशर्मी से इस्तेमाल किया.
 
इस आदमी ने सिर्फ कुर्सी की लालसा में भाजपा के राजनीतिक भविष्य को दांव पर लगाते हुए उसे फिर से एक धुर-दक्षिणपंथी ध्रुव में बदल दिया है.
यह भाजपा की सभी संभावनाओं का अंत है.
२०१४ निश्चय ही एक भाजपा-मुक्त भारत का प्रस्थानबिंदु बनेगा.
यह मेरे लिए परम संतोष की बात है. 

इतिहास का यही न्याय है. और सही न्याय है.
आखिर आडवानी ने ही उस सियासत को जन्म दिया था, जिसकी अंतिम परिणति किसी हिटलरनुमा भस्मासुर में होनी तय थी.

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