Sunday 8 September 2013

मुजफ्फरनगर दंगों के बाद एक फौरी अपील - ashok kumar pandey





Ashok Kumar Pandey - 
"हम अपनी खामोशियों के गुनाहगार रहे;
वे जूनून बनके सबके सर पे सवार रहे|
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(मुजफ्फरनगर दंगों के बाद एक फौरी अपील)
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लहू का आदिम खेल फिर ज़ारी है. फिर ज़ारी है अफवाहों का वलवला और पतित राजनीति के षड्यंत्रों का सिलसिला. धरम के नाम पर फिर हथियार निकल गए हैं और इंसानी लाशों की पहचान उनके धार्मिक निशानों की बिना पर कर उन पर अपनी-अपनी रोटियाँ सेंकने का कारोबार ज़ारी है. गोरख लिख गए थे - 

"इस साल दंगे बहुत हुए हैं/ 
ख़ूब हुई है खून की बारिश/ 
अगले साल अच्छी होगी/
फ़सल मतदान की.."

- तो २०१४ से ठीक पहले यह होना दुखी भले करे, चिंता में भले डाले, गुस्से से भले भर दे लेकिन आश्चर्यचकित तो नहीं ही कर रहा है. 

मुजफ्फरनगर में क्या हुआ...कैसे हुआ..पहले हिन्दू मरा कि मुसलमान. मेरे लिए यह सब कोई मानी नहीं रखता. 

मानी इस बात का है कि दंगे हो रहे थे और प्रशासन अनुपस्थित रहा. जनता के पैसों से चलने वाला शासन जनता के लहू को बेभाव बहने से रोकता नज़र नहीं आया. सत्ता की अदम्य लालसा से पूरा संघ गिरोह किसी भी हाल में दिल्ली का तख़्त-ओ-ताज़ हासिल करने पर लगा है. उसकी ये हरक़तें लाज़िम हैं. 

लेकिन खुद को सेकुलर कहे जाने वाली ताक़तें अगर उसकी हरक़तों पर बंदिश नहीं लगा पातीं तो यह गुनाह में शामिल होना क्यों न माना जाय? आखिर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण दुधारी तलवार है जो दोनों मज़हबों को ध्रुवीकृत कर जनता के असली मुद्दों को कूड़ेदान में डालने का काम करता है.

इतनी मंहगाई, इतनी बदहाली और देखते देखते एक एक करके जनता के सारे मुस्तक़बिल को बाज़ार के हवाले कर दिए जाने का कोई विरोध संभव नहीं होता. ज़िन्दगी भर के श्रम के बाद हासिल पेंशन हमारे सामने सामने पूंजीपतियों के जूए के लिए मूलधन बन गयी और हम सब ख़ामोश! लेकिन धर्म के नाम पर सबके हाथों में तलवारें आ जाती हैं. हर कोई पत्रकार, हर कोई रिपोर्टर, हर कोई नेता और हर कोई योद्धा! 

तो सोचना तो हमें भी होगा कि यह मज़हबी जूनून हमारी इतनी कमज़ोर नस कैसे बनता चला जाता है कि हमारे गले पर जकड़ी हथेलियाँ इसे धीरे से दबाती हैं और हम उन्हीं की भाषा बोलने लगते हैं?आज से लेकर अगले चुनावों तक यह मसअला बार-बार सामने आना है. सोचना हमें है कि हमें क्या करना है? क्या हम इस मज़हबी जूनून की बीमारी के इतने एडिक्ट हो चुके हैं कि अब कोई इलाज़ नहीं? क्या लहू हमारे नेताओं के साथ साथ हमारे भी मुंह लग गया है...या कभी हम हाथ में हाथ डालकर इसके खिलाफ़ आवाज़ भी लगायेंगे? 

बकौल पाश -

"आदमी के ख़त्म होने का फैसला वक़्त नहीं करता, 
हालात नहीं करता वह खुद करता है; 
हमला और बचाव, 
दोनों आदमी ख़ुद करता है|" 

September 9, 2013

2 comments:

  1. दंगाई न तो हिन्दू होता है और न मुसलमान. वह केवल दंगाई होता है.
    -: दंगाई :-
    मैं जानता हूँ मेरे दोस्त, "खुदा है ही नहीं."
    अगर हुआ भी तो फिर इनके संग नहीं होगा.
    लोग कहते हैं - "खुदा तो गरीब-परवर है",
    दुश्मन-ए-खल्क की खिदमत में भला क्यों होगा!
    वक्त-बेवक्त खुदा की कसम खा कर देखो,
    किसको लूटा नहीं, मारा नहीं, छोड़ा किसको?
    ज़ुल्म करते हैं ये, देते हैं दगा किसको नहीं?
    इनका ईमान कहाँ, इनमें है गैरत कैसी, हैं ये इन्सान कहाँ?
    इनके मुँह से खुदा का नाम सुने, तो खुदा भी रो बैठे!
    और शैतान भी देखे इन्हें, तो शरमाये!!

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  2. दंगा - 6
    बच्चो, बूढ़ों से मत सीखो, तुमको उल्टा पाठ पढ़ाते।
    इनकी आँखों पर पट्टी है, सच को नहीं जान ये पाते।

    ईश्वर-अल्ला तुम्हें सिखाते, स्वर्ग-नरक का झूठ पढ़ाते।
    मीठी-मीठी बोली देखो, फिर भी बातें ग़लत बताते।

    कैसा ईश्वर? कौन ख़ुदा है? ऊपर वाला क्यों ऐसा है?
    अल्ला-ईश्वर-गाॅड बन गया, हम सब को उसने बँटवाया।

    तेरा-मेरा-उसका कह कर, जन-बल को तोड़ा, लुटवाया।
    ऊपर वाला कहीं नहीं है, नीचे बस इन्सान सही है।

    धरम-करम की गप कोरी है, इसने सारा फूस जुटाया।
    मज़हब ही लड़ना सिखलाता, आपस में है बैर बढ़ाता।

    जिसका लाभ उठाता नेता, भाषण की गोटी चमकाता।
    नहीं बना इन्सान अभी, जो इन्सानों का घर जलवाता।

    घड़ियालों को तो पहिचानो! दाढ़ी-चोटी को तो जानो!
    कब तक इनकी दाल गलेगी? कब तक इनकी ऐश चलेगी?

    कब तक चुप रह पाओगे तुम? कब तक यह सह पाओगे तुम?
    कभी तो सच भी गुस्सा होगा, कभी तुम्हारा सिर भी तनेगा।

    कभी तो इन्सानों का तेवर इनकी ख़ातिर कहर बनेगा!
    तब फिर ये कैसे अकड़ेंगे? तब फिर ये कैसे लूटेंगे?

    तब फिर कैसे ऐश करेंगे? तब फिर घर कैसे फूँकेंगे?
    इनका कुछ तो करना होगा, वरना यूँ ही मरना होगा।

    http://young-azamgarh.blogspot.in/2012/06/blog-post_28.html

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