Saturday 21 September 2013

अनंतमूर्ति का बयान और उसके विरोधों के निहितार्थ - Ashok Kumar Pandey

"सौ बार इस फरार से बेहतर है खुदकशी, 
क्या गुलिस्ताँ को छोड़ दें बिजली के डर से हम !"
हम लड़ेंगे, साथी!
उनके नापाक मंसूबे ध्वस्त होने तक 
या अपनी ज़िन्दगी की आख़िरी साँस तक हम लड़ेंगे...
न तो अनन्तमूर्ति कहीं जायेंगे और 
न ही हम सभी मैदान-ए-जंग से भागने जा रहे हैं....
यह मुल्क हमारा है, हम सब का है....
इसे हम उनको अपनी चारागाह नहीं बनाने देंगे...
जीतता वही है, जो लड़ता है...

Ashok Kumar Pandey - साहित्यकार अनन्तमूर्ति का वह बयान यह है, जिस पर टिप्पणियाँ की जा रही हैं.
(इस सवाल और जवाब को देखिये और फिर बताइये कि वह जो कह रहे हैं उसके मानी वही हैं जिसके आधार पर आप उन्हें गालियाँ दे रहे हैं? जवाब का अनुवाद मैंने हिंदी में भी कर दिया है)

सवाल : What has been the reaction to your comment? How would you reply to it?

अनंतमूर्ति : I grew up critical of Nehru and Indira. I was against the Emergency. I was criticised for that but never abused like I have been now. This is the nature of fascism. The man has the might of the corporate world behind him, and most of the media. And all these admirers get worried about one remark made by literary man. After all, that’s what I am, a writer. I don’t even write in English. It shows that literature still has power. When an authoritarian personality comes to power, those who are silent now, will be even more silent. So, I don’t want to live in a world where Modi is Prime Minister.

"मैं नेहरू और इंदिरा के प्रति आलोचनात्मक हो गया. मैं आपातकाल के खिलाफ़ था. इसके लिए मेरी आलोचना हुई मुझे ऐसे गालियाँ कभी नहीं दी गयीं जैसी आज दी जा रही हैं. इस आदमी के पीछे कारपोरेट जगत की ताकत है और अधिकाँश मीडिया की भी. और इसके सभी प्रसंशक एक साहित्यिक आदमी की टिप्पणी से परेशान हो गए. आखिरकार मैं वही हूँ, एक लेखक. . यहाँ तक कि मैं अंग्रेजी में भी नहीं लिखता. यह दिखाता है कि साहित्य में अब भी ताक़त है. जब एक सर्वसत्तावादी सत्ता में आता है तो जो आज चुप हैं वे और चुप हो जायेंगे. इसलिए मैं एक ऐसी दुनिया में नहीं रहना चाहता जहाँ मोदी प्रधानमंत्री हो."

 तो देश भी सिर्फ भौगोलिक सीमा नहीं होता, वह मानसिक और वैचारिक निर्मिति भी होता है. इस भारत कहे जाने वाले भौगोलिक देश में एक मोदी की दुनिया रहती है जहाँ विरोध के लिए कोई जगह नहीं, जहाँ सहिष्णुता कोई जीवन मूल्य नहीं, जहाँ संविधान की कोई क़ीमत नहीं, जहाँ लेखक का पर्यायवाची चारण है. चाहें तो दो साल पहले हुए गुजरात साहित्य अकादमी के उर्दू कवि के साथ व्यवहार को याद कर लें. चाहें तो सरूप ध्रुव जैसी गुजराती लेखिका से पूछ लें. जो होशियार हैं वे चुप हैं, आहिस्ता आहिस्ता जबानें बदल रहे हैं जो नहीं हैं वे अनंतमूर्ति की तरह साफ़ बोल रहे हैं और गालियाँ सुन रहे हैं. उनकी दिक्कत यह है कि वह अपनी वैचारिक नागरिकता के प्रति प्रतिबद्ध हैं, चाहे इसके लिए उन्हें अपनी भौगोलिक नागरिकता त्यागनी पड़े.
लेकिन लोग इसे समझना नहीं चाहते. वे अस्सी साल के लेखक से, जो आज भी सड़क पर खड़ा है अपने एक साथी की किताब पर प्रतिबंध लगाए जाने के ख़िलाफ़, ‘वीरता’ के उच्चतम मानदंडों की उम्मीद करते हैं लेकिन ख़ुद उसकी चिंताओं पर सोचने को भी तैयार नहीं. वे उन हालात को रोकने के लिए लड़ाई में उतरने को तैयार नहीं. उनके पास अनंतमूर्ति को देने के लिए यह आश्वासन नहीं कि आपको कहीं नहीं जाना पड़ेगा, हम हिटलर के इस अवतार को सत्ता में आने ही नहीं देंगे. वे उनके ‘पलायन’ को प्रश्नांकित करते हैं और इस तरह उनके संघर्षों और उनकी चिंताओं को परदे के पीछे भेज दिए जाने में मदद करते हैं. मुझे डर है कि वे अपनी भौगोलिक नागरिकता बचाने के लिए अपनी वैचारिक नागरिकता त्यागने की तैयारियाँ मुकम्मिल करने में लगे हैं. अगर नहीं तो उन्हें समझना चाहिए कि यह एक लेखक की कातर पुकार नहीं चुनौती है अपने नागरिकों के प्रति.

"फासीवाद की एक प्रमुख विशेषता यह होती है कि वह अफवाह फैलाता है. जैसा कि संघ परिवार ने मेरे साथ किया. एक कन्नड़ अखबार है 'कन्नड़ प्रबाह' जिसने मेरे बारे में अफवाहें और गन्दी चीजें प्रकाशित कीं. ऐसी चीजें कि मुझे मर जाना चाहिए. यही हिटलर के समय में हुआ था. मेरा शोध इसी पर है." - अनंतमूर्ति, एक साक्षात्कार में 


वरिष्ठ कन्नड़ लेखक अनंतमूर्ति के बयान के बाद सोशल मीडिया सहित तमाम जगहों पर बवाल मचा है . ज़ाहिर है कि मोदी को लकड़ी के लाल किले से असली वाले लाल किले तक पहुँचाने की कोशिश में लगे संघ गिरोह और उसके समर्थकों को यह बुरा लगता. ज़ाहिर है कि वे उन्हें देश से चले जाने की सलाहें देने भर से संतुष्ट नहीं होते और उनकी ह्त्या तक की बात करते, लेकिन जो लोग मोदी के समर्थक नहीं हैं वे भी इस बयान से खासे नाराज़ ही नहीं नज़र आ रहे बल्कि उन्हें भगोड़ा और कायर भी कह रहे हैं. रवीश कुमार जैसे समझदार और उदार समझे जाने वाले पत्रकार भी इस मुद्दे पर जिस तरह ‘जनमत’ के नाम पर उनके प्रति अपमानजनक टिप्पणियाँ कर रहे हैं वह सच में हैरान करने वाला है. यहाँ यह भी समझने की ज़रुरत है कि उनकी प्रयुक्त शब्दावली थी, 'आई डीड ना वांट टू लिव इन अ कंट्री रुल्ड बाई मोदी'. लिव रहना ही नहीं होता, जीना भी होता है. उन्होंने कहीं विदेश जाने की बात नहीं की हैं. वह कह रहे हैं कि ऐसे देश में वह जीना नहीं चाहेंगे जिसका प्रधानमंत्री मोदी हो. वह कह रहे हैं कि वह इस धक्के से मर जाएँगे. (मूल बयान यहाँ पढ़ा जा सकता है)

फिर भी चलिए मान लेते हैं कि वह विदेश जाने की ही बात कर रहे हैं. तो भी एक अस्सी साल के लेखक के प्रति जिस तरह की असहिष्णुता दिखाई जा रही है, वह यह तो बिलकुल साफ़ करती है कि कम से कम भारत में लेखकों को लेकर न्यूनतम सम्मान वाली स्थिति भी नहीं है, वरना शायद इस शोरगुल का एक हिस्सा अनंतमूर्ति की उस चिंता के लिए भी होता जो उस वक्तव्य में उन्होंने एक फासिस्ट सरकार आने की दशा में भारत के सेकुलर और सहिष्णु ताने बाने को लेकर जताई है. एक ऐसे देश में जहाँ मध्यवर्ग का सबसे बड़ा सपना अपने बच्चों या मुमकिन हो तो खुद अपने लिए अमेरिका या किसी अन्य पश्चिमी देश में एक अदद नौकरी हासिल कर लेना हो, मोदी जिस प्रदेश से आते हैं वहां तो अमेरिका और कनाडा जाने के लिए क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी तरीक़े अपनाना एकदम रोजमर्रा की बात है, एक ऐसे देश में जहाँ ‘इम्पोर्टेड’ अब भी एक पवित्र शब्द हो वहां एक लेखक के इस बयान पर इतना शोर! 


न जाने क्यों मुझे ऐसे में गुजरात के उस मुसलमान युवक की याद आ रही है जिसका दंगाइयों के सामने हाथ जोड़े फ़ोटो उस दौर में गुजरात दंगों की त्रासदी का प्रतीक बन गया था. वह गुजरात से कोलकाता चला गया था! एक प्रोफ़ेसर बंदूकवाला थे जो एक नयी और आधुनिक रिहाइश में अपने हिन्दू दोस्तों के बीच रहने चले आये थे उन दंगों के पहले और फिर उन्हें वहाँ दंगों के दौरान इतना परेशान किया गया कि वह लौटकर पुरानी मुस्लिम बस्ती में चले गए. विभाजन के समय यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ आये लोगों का क़िस्सा तो पुराना हुआ अभी मुजफ्फरपुर दंगों के बाद कितने लोग अपना गाँव छोड़कर किसी और सुरक्षित ठिकाने पर चले गए! देश न छोड़ सके तो देस छुडा दिया गया. हिटलर के राज में , जिससे अनंतमूर्ति सहित तमाम लोग नरेंद्र मोदी की तुलना करते हैं, ब्रेख्त सहित कितने लोगों को देश छोड़ना पड़ा और सी आई ए ने किस तरह चार्ली चैपलिन को देश छोड़ने पर मज़बूर किया ये किस्से इतने भी पुराने नहीं (चाहें तो इसमें सोवियत संघ से देश छोड़ने वाले, कश्मीर से देश छोड़ने वाले, पाकिस्तान और इरान से देश छोड़ने वाले, फलस्तीन से देश छोड़ने वाले तमाम जाने अनजाने लोगों को जोड़ लें, मैं बख्श किसी को नहीं रहा, सिर्फ उदाहरणों की भीड़ लगाने की जगह प्रतिनिधि उदाहरण प्रस्तुत कर दे रहा हूँ). क्या कहेंगे आप इन सब लोगों को? भगोड़ा? कायर? देशद्रोही? कह लीजिये कि अभी आप ऐसे हालात से नहीं गुज़रे.

अनंतमूर्ति . कर्नाटक में रहकर कन्नड़ में लिखते हैं. उस कर्नाटक में जहाँ दक्षिणी राज्यों में पहली बार बी जे पी सत्ता में आई और श्रीराम सेने के उत्पातों के रूप में शिवसेना और बजरंग दल के उत्पातों का प्रयोग हुआ. जहाँ उनका मशहूर उपन्यास ‘संस्कारम’ लगातार विवाद में रहा. जो उन्हें जानते हैं वह शायद यह भी जानते होंगे कि एक लेखक की तरह सिर्फ लिखकर ही नहीं एक कार्यकर्ता की तरह सड़क पर आकर भी उन्होंने साम्प्रदायिक शक्तियों की मुखालिफत की. इमरजेंसी के खिलाफ स्टैंड लिया. चौरासी के दंगों पर तीखी प्रतिक्रिया दी और एक लोकसभा चुनाव इस घोषणा के साथ लड़ा कि वह ‘ भारतीय जनता पार्टी के ख़िलाफ़ लड़ने के मुख्य वैचारिक उद्देश्य से ही चुनाव लड़ रहे हैं’. यही नहीं उन्होंने चुनाव में देवेगौडा का दिया टिकट तब ठुकरा दिया जब देवेगौड़ा ने बीजेपी के साथ समझौता कर लिया. वह वामपंथी भी नहीं हैं. लोग जानते ही हैं कि बेंगलोर को बेंगलुरु नाम देने के आन्दोलन में वह बेहद सक्रीय रहे हैं. असल में वह एक ओर ब्राह्मणवादी संस्कारों और विचारों के कट्टर विरोधी रहे हैं तो साथ में देशज आधुनिकता के समर्थक हैं. इस रूप में वह शब्दवीर भर नहीं कि उन्हें शोशेबाज़ी का शौक हो. वह सक्रिय राजनैतिक लेखक रहे हैं जिन्होंने ऐसी ताक़तों के खिलाफ लगातार लड़ाई लड़ी है. वह राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, शान्तावेरी गोपाल गौड़ा जैसे समाजवादी नेताओं के साथ नजदीकी से जुड़े रहे हैं. ऐसे में अगर वह मोदी के आने के बाद देश छोड़ने की बात कह रहे हैं तो उसे समझा जाना चाहिए. एक सक्रिय वयोवृद्ध लेखक यह कह भर नहीं रहे हैं, यह कहते हुए कर्नाटक में ‘धुंडी’ पर लगे प्रतिबंध और उसके लेखक योगेश मास्टर की गिरफ्तारी के खिलाफ सक्रिय हैं. तो यह पलायन नहीं है. इस उम्र में वह अपने शरीर और अपने हौसलों की सीमा जानते हैं. वह जानते हैं कि देश में साम्प्रदायिक शक्तियों के हाथ में ताक़त आने के बाद उन जैसे लेखकों के विरोध का अधिकार किस तरह छीना जाने वाला है. 

इस इंटरव्यू के बाद उठे विवाद की रौशनी में दिए गए एक इंटरव्यू में वह कहते हैं, ‘मैं नेहरू और इंदिरा के प्रति आलोचनात्मक हो गया. मैं आपातकाल के खिलाफ़ था. इसके लिए मेरी आलोचना हुई मुझे ऐसे गालियाँ कभी नहीं दी गयीं जैसी आज दी जा रही हैं. इस आदमी के पीछे कारपोरेट जगत की ताकत है और अधिकाँश मीडिया की भी. और इसके सभी प्रसंशक एक साहित्यिक आदमी की टिप्पणी से परेशान हो गए. आखिरकार मैं वही हूँ, एक लेखक. . यहाँ तक कि मैं अंग्रेजी में भी नहीं लिखता. यह दिखाता है कि साहित्य में अब भी ताक़त है. जब एक सर्वसत्तावादी सत्ता में आता है तो जो आज चुप हैं वे और चुप हो जायेंगे. इसलिए मैं एक ऐसी दुनिया में नहीं रहना चाहता जहाँ मोदी प्रधानमंत्री हो.’ गौर कीजिए वह यहाँ ‘देश’ नहीं ‘दुनिया’ कह रहे हैं. साहित्य की भाषा से परिचित लोग जानते हैं कि दुनिया का मतलब वह दुनिया ही नहीं होता जिसका राजा आज अमेरिका है. दुनिया भावभूमि के रूप में प्रयुक्त होती है, जैसे लेखकों की दुनिया, कवियों की दुनिया, कलाकारों की दुनिया. तो देश भी सिर्फ भौगोलिक सीमा नहीं होता, वह मानसिक और वैचारिक निर्मिति भी होता है. इस भारत कहे जाने वाले भौगोलिक देश में एक मोदी की दुनिया रहती है जहाँ विरोध के लिए कोई जगह नहीं, जहाँ सहिष्णुता कोई जीवन मूल्य नहीं, जहाँ संविधान की कोई क़ीमत नहीं, जहाँ लेखक का पर्यायवाची चारण है. चाहें तो दो साल पहले हुए गुजरात साहित्य अकादमी के उर्दू कवि के साथ व्यवहार को याद कर लें. चाहें तो सरूप ध्रुव जैसी गुजराती लेखिका से पूछ लें. जो होशियार हैं वे चुप हैं, आहिस्ता आहिस्ता जबानें बदल रहे हैं जो नहीं हैं वे अनंतमूर्ति की तरह साफ़ बोल रहे हैं और गालियाँ सुन रहे हैं. उनकी दिक्कत यह है कि वह अपनी वैचारिक नागरिकता के प्रति प्रतिबद्ध हैं, चाहे इसके लिए उन्हें अपनी भौगोलिक नागरिकता त्यागनी पड़े.

लेकिन लोग इसे समझना नहीं चाहते. वे अस्सी साल के लेखक से, जो आज भी सड़क पर खड़ा है अपने एक साथी की किताब पर प्रतिबंध लगाए जाने के ख़िलाफ़, ‘वीरता’ के उच्चतम मानदंडों की उम्मीद करते हैं लेकिन ख़ुद उसकी चिंताओं पर सोचने को भी तैयार नहीं. वे उन हालात को रोकने के लिए लड़ाई में उतरने को तैयार नहीं. उनके पास अनंतमूर्ति को देने के लिए यह आश्वासन नहीं कि आपको कहीं नहीं जाना पड़ेगा, हम हिटलर के इस अवतार को सत्ता में आने ही नहीं देंगे. वे उनके ‘पलायन’ को प्रश्नांकित करते हैं और इस तरह उनके संघर्षों और उनकी चिंताओं को परदे के पीछे भेज दिए जाने में मदद करते हैं. मुझे डर है कि वे अपनी भौगोलिक नागरिकता बचाने के लिए अपनी वैचारिक नागरिकता त्यागने की तैयारियाँ मुकम्मिल करने में लगे हैं. अगर नहीं तो उन्हें समझना चाहिए कि यह एक लेखक की कातर पुकार नहीं चुनौती है अपने नागरिकों के प्रति.



I won't live in a country ruled by Narendra Modi: UR Ananthamurthy 
D P Satish, IBNLive.com | Posted on Sep 18, 2013 
Internationally acclaimed Kannada writer and thinker Dr UR Ananthamurthy said that he did not want to live in a country ruled by Gujarat Chief Minister Narendra Modi. The 81 year old, ailing writer feels that a man like him, who always fought against authoritarian tendencies in the government cannot live in India, if Modi comes to power in the next Lok Sabha elections. The Jnanapeeth Award recipient for the year 1994, Ananthamurthy has been a part of the socialist movement in Karnataka. Ananthamurthy was a close associate of stalwarts like Ram Manohar Lohia, Jayaprakash Narayan, Shanthaveri Gopala Gowda and many other top socialist leaders. He has been a vocal critic of the RSS and BJP/Jan Sangh for over 50 years. Murthy who spoke to Ibnlive.com from his hospital bed in Bangalore said, "I won't live in a country ruled by Narendra Modi. When I was young, I used to criticise Prime Minister Nehru. But, his supporters never attacked us. They always respected our views. Modi supporters are now behaving like Fascists. They are behaving like the Fascists in Germany during Hitler. I don't want to see a man like Modi in the chair, where once a man like Nehru sat and ruled. I am too old and unwell. If Modi becomes the PM, it will be a big shock to me. I won't live." Ananthamurthy said he don't want to see a man like Modi in the chair, where once a man like Nehru sat and ruled. Ananthamurthy said he don't want to see a man like Modi in the chair, where once a man like Nehru sat and ruled. Murthy had attacked LK Advani during his Rath Yathra and after the demolition of Babri Masjid. However he had backed B S Yeddyurappa for the post of the Chief Minister on the grounds that he was cheated by the Gowdas and he is from a farming background. Ananthamurthy has also been a part of all progressive movements that took shape in the last 50 years. He had served as President Kendra Sahitya Academy, National Book Trust, FTII Pune and Vice Chancellor of the Mahatma Gandhi University, Kottayam. He is currently the Chancellor of Central University in Gulbarga. He was one of the finalists of the Man Booker life time achievement award, earlier this year. Murthy taught English literature at Mysore University for over three decades. He did PHD in literature from the University of Birmingham, United Kingdom in the early 1960s. His first novel 'Sanskara' had created a huge controversy in the 1960s. In this novel, he questions the rigid caste system practiced by the Brahmins.

Read more at: http://ibnlive.in.com/news/i-wont-live-in-a-country-ruled-by-narendra-modi-ur-ananthamurthy/423015-62-129.html?utm_source=ref_article

4 comments:

  1. दिनेशराय द्विवेदी - अनन्तमूर्ति के उपन्यास घटश्राद्ध पर निर्मित एक फिल्म ...https://www.youtube.com/watch...

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  2. https://www.youtube.com/watch?feature=player_embedded&v=ecNHvmzzg4w#t=1154

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  3. Pawel Parashar - "अनंतमूर्ति जी ने नेहरु के खिलाफ भी काफी कुछ लिखा। इंदिरा गाँधी के तानाशाही काल के खिलाफ भी काफी कुछ लिखा , बोला। फिर नरसिम्हा राव और मनमोहन की नव उदारवादी नीतियों के खिलाफ भी काफी कुछ कहा। लोहिया की जातिवादी राजनीती की भी आलोचना की। पर कभी इतना बड़ा विवाद नहीं हुआ। पर कुछ तो बात है जो संघी लम्पटों की लम्पट राजनीति में कि मानो मोदी के खिलाफ किसी को कुछ बोलने का हक़ ही नहीं। अगर किसी ने कुछ कहने की हिम्मत की तो संघी/ भाजपाई लम्पट- लफंगे निम्न से निम्न स्तर की राष्ट्रवादी गलियों से फेसबुक या फिर दुसरे कई जगहों पर उसपर हमला बोल देंगे। ये तो हाल तब है जब तानाशाह मोदी ने बस प्रधानमंत्री बनने का सपना भर देखा है। अगर गलती से सत्ता में आ गया तब तो आलोचना करने वालों को सीधे जेल या मौत की सजा दी जाएगी इन लोगों के द्वारा। यही तो फासिज्म है। भूलिए मत हिटलर , मस्सोलिनी , फ्रांको , चंगेज़ खान जैसों को। वैसे ये वही संघ है जो हिटलर की तस्वीर अपने नागपुर कार्यालय में सजा कर रखता है।"
    https://www.facebook.com/groups/269839766420379/

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  4. Modi’s fascist followers tell lies

    In an interview to Bangalore Mirror, UR Ananthamurthy reiterates his apprehension of the possibility of Modi becoming Prime Minister, but also states that he would never leave the country

    On the lines of Nobel laureate Amartya Sen, the ever-outspoken U R Ananthamurthy, renowned Kannada litterateur and Jnanpith award winner, recently voiced his anathema toward the idea of Narendra Modi helming the nation as Prime Minister. His statement that 'I don't want to live in a country where Modi is Prime Minister' at a book release function last week elicited angry reactions from the Gujarat chief minister's supporters, mostly online, and from BJP leaders.

    The 81-year-old Ananthamurthy, however, isn't fazed. On a request for an interview on the subject by Bangalore Mirror a couple of days back, Ananthamurthy acceded to an email question-answer tete. In his reply received on Saturday, Ananthamurthy reiterates his belief that Modi is a "hollow exhibitionist". We retain the emphases that he conveyed through his email reply.

    What is your idea of India?
    URA: A rich country where different religions, different languages, different food habits coexist.

    What prompted you to say that "you will not live in a country with Modi as the prime minister''?
    Modi has no inner life. If he succeeds India will no longer be my India.

    You think L K Advani is more acceptable than Modi?
    Advaniji was like Modi earlier. Yet he changed. He said he was ashamed of pulling down the Babri Masjid. I don't dislike Advaniji as much as I suspect a hollow exhibitionist like Modi.

    If it is the 2002 riots, what about the 1984 pogrom of Sikhs in Delhi?
    Horrible. All mass violence is horrible for none gets punished although it is manipulated by just a few evil-minded people.

    Sadananda Gowda had said it is the nature of democracy that will propel Modi to the PM's post and yours is an anti-democratic statement.
    Majority rules in a democracy, but what the majority represents need not be the truth. Therefore, even if I am alone I should have the freedom to oppose the majority. That is the essence of democracy.

    The mantra that is mouthed in favour of Modi is development, that he has done a whole lot of good for Gujarat, and that the 2002 riots should not be recalled. Do you think he may be a changed man now or as prime minister may be different from his past?
    What India, perhaps the whole world, needs is SARVODAYA and not development that destroys the earth.

    The general perception is the urban middle class and the youth want someone seen to be decisive like Modi to be PM. They are wrong if they think so. And they will change once they find out what a bully is our Narendra Modi.

    Is corruption the bigger evil or communalism?
    Both are EVIL. HATRED is greater EVIL than GREED.

    If not India, which country do you see yourself which fits in with your ideals?
    I will never leave India. The Sangh Parivar is twisting what I said metaphorically. That is what Modi's fascist followers do. They tell lies.
    http://www.bangaloremirror.com/bangalore/cover-story/Modis-fascist-followers-tell-lies/articleshow/22865782.cms

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