Tuesday 29 October 2013

कट्टरता की इबारत - खुर्शीद अनवर


जनसत्ता 22 अक्तूबर, 2013 : वहाबी इस्लाम सऊदी अरब सरकार की राजनीतिक विचारधारा है। पूरे स्कूली पाठ्यक्रम में इस विचारधारा का प्रचार शामिल है। सऊदी अरब में पब्लिक स्कूलों की संख्या लगभग पच्चीस हजार है,

जिनमें पचास लाख से ऊपर छात्र शिक्षा ग्रहण करते हैं। फारूक मस्जिद, टेक्सास (अमेरिका) से बरामद एक दसवीं कक्षा की किताब ‘साइंस ऑफ तौहीद’ में दर्ज है कि गैर-मुसलिमों या गैर-वहाबी मुसलिमों के साथ रहना इस्लाम के खिलाफ है। इसीलिए अल्लाह का हुक्म है कि सिर्फ मुसलमानों (वहाबी मुसलमानों) के दरमियान उठो-बैठो। यह तो महज झलक है। जरा सऊदी अरब के शिक्षा मंत्रालय द्वारा स्वीकृत वहां पाठ्यक्रम में मौजूद कुछ उदाहरणों को देखें तो तस्वीर और साफ हो जाएगी।

‘‘मुसलमान जो अंतर्धार्मिक संवाद में पड़ते हैं उनको भी अधार्मिक मानना चाहिए। सूफी और शिया आस्था को भी इसी श्रेणी में रखा जाना चाहिए। जो मुसलिम कोई और धर्म अपना ले उसे कत्ल कर दिया जाना चाहिए। एक मुसलमान के लिए जायज है कि उसका खून बहा दे और उसकी संपत्ति पर कब्जा कर ले।’’

‘‘जो सुन्नी मुसलिम वहाबी विचारधारा में विश्वास नहीं रखते उनकी भर्त्सना करनी चाहिए और उन्हें हेय दृष्टि से देखना चाहिए और उनको बहु-ईश्वरवादी नस्ल की पैदावार मानना चाहिए। मुसलमानों पर जोर डालो कि ईसाई, यहूदी, बहु-ईश्वरवादी, और गैर-वहाबी मुसलिमों समेत तमाम अनास्था वालों से नफरत करनी चाहिए। न तो किसी गैर-मुसलिम या वहाबी आस्था में विश्वास न रखने वाले मुसलिम से मेलजोल करो न ही आदर दिखाओ।’’

‘‘जिहाद के जरिए इस्लाम फैलाना ‘मजहबी फर्ज’ है। एक सच्चे मुसलमान का फर्ज है कि अल्लाह के नाम पर जिहाद के लिए तैयार रहे। तमाम नागरिकों और सरकार का भी यही फर्ज है। सैन्य प्रशिक्षण आस्था में निहित है और इसे लागू किया जाना चाहिए। जंग के लिए असलहे रखना जरूरी है। बेहतर तो यह हो कि विशिष्ट सैन्य वाहन, टैंक, रॉकेट, लड़ाकू विमान और वे अन्य सामान जो आधुनिक युद्ध में जरूरी होते हैं उनकी फैक्ट्रियां लगाई जाएं।’’

जरा नजर डालिए कि प्राथमिक शिक्षा में जिन बच्चों को पढ़ाया जाए कि ‘इस्लाम (वहाबी) के अलावा हर धर्म गलत रास्ते पर है। और फिर इम्तिहान में सवाल हो, रिक्त स्थान की पूर्ति करें ‘‘.... के अलावा हर धर्म गलत रास्ते पर है। जो मुसलमान नहीं है वह मरने के बाद ... में जाएगा।’’ जाहिर है कि पहले इन बच्चों को गैर-इस्लामी कौन है यह बताया जा चुका है। इसमें गैर-वहाबी सुन्नी, शिया समेत तमाम धर्म शामिल हैं।

एक मार्च, 2002 को ऐन-अल-यकीन नामक पत्रिका ने ऑनलाइन सऊदी अरब के राजशाही परिवार के वहाबियत को दुनिया भर में फैलाने के शैक्षणिक कार्यक्रम के बारे में रिपोर्ट दी। इसमें बताया गया कि किंग फहद अरबों सऊदी रियाल वहाबी इस्लामी संस्थानों और इस विचारधारा की शिक्षा पर खर्च कर रहे हैं। सऊदी अरब से बाहर पश्चिमी देशों में 210 इस्लामी केंद्र, 500 मस्जिदें, 202 कॉलेज और 2000 स्कूल एशिया, ऑस्ट्रेलिया और उत्तरी अमेरिका में इन्हीं पाठ्यक्रमों के साथ खोले हैं, जिनमें वही शिक्षा दी जाएगी जो सऊदी अरब के पब्लिक स्कूलों में दी जाती है। मतलब जिहादी शिक्षा, नफरत की शिक्षा, आतंकी शिक्षा।

ऐन-अल-यकीन ने जो देश गिनाए उनमें दक्षिण एशिया, अफ्रीका, यूरोप और अमेरिका सहित अस्सी देशों का जिक्र है। सऊदी अरब में तो वहाबियत राजनीतिक विचारधारा ही है और राष्ट्र एक वहाबी राष्ट्र, लेकिन इसका नासूर दुनिया भर में फैले इसके लिए मदीना स्थित इस्लामी विश्वविद्यालय में पचासी सीटें विदेशी छात्रों के लिए आरक्षित हैं और इसमें लगभग एक सौ चालीस देशों के पांच हजार छात्र पंजीकृत हैं।

सऊदी अरब के शिक्षामंत्री फैसल बिन अब्दुल्लाह बिन मोहम्मद अल सऊद ने जहरीली शिक्षा का राज फाश होने के बाद 2005 में पाठ्यक्रम में सुधार लाने की बात की, लेकिन आज तक इस पर कोई अमल नहीं हुआ। इतना ही नहीं, इसी वर्ष यानी 2005 में एक अध्यापक को यहूदियों, शिया मुसलिमों, गैर-वहाबी सुन्नियों को भी इंसान बताने के जुर्म में सार्वजनिक रूप से साढ़े सात सौ कोड़े और कैद की सजा हुई। बाद में अंतरराष्ट्रीय दबाव में कैद की सजा माफ की गई।

कौन-सी शिक्षा है यह? क्या मकसद है इस शिक्षा का? क्या बन रहे हैं यहां से तथाकथित शिक्षा प्राप्त करने वाले?

ईरान के प्रोफेसर मुर्तजा मुत्तरी के शब्दों में, इन वहाबियों को न इस्लाम की समझ है न कुरान की। लिहाजा इनका पूरा शिक्षाशास्त्र खूनी खेल ही सिखा सकता है। ‘‘वहाबियों का अकीदा है कि अल्लाह के दो पहलू हैं। पहला उसका तसव्वुर, जिसमें दाखिल होने की इजाजत किसी को नहीं। अल्लाह से वाबस्ता इबादत और तवस्सुल (अल्लाह तक पहुंचने का जरिया जैसे सुन्नी खलीफा या शिया इमामत) दो बिल्कुल अलग चीजें हैं। तवस्सुल तक आकर वहाबियत बाकी इस्लाम से दूर हो जाती है।

यह कुरान के खिलाफ है कि आप खालिक (अल्लाह) और मखलूक (इंसान) में मखलूक की अजमत को न मानें। खुदा ने आदम के सामने फरिश्तों तक को सजदा करने को कहा और वहाबी उसे नकारते हैं। इस तरह से आप इंसान को अशरफ-उल-मख्लूकात (जीवों में सर्वश्रेष्ठ) से गिरा कर सिर्फ जानवर बना देते हैं। जो लोग इंसान की श्रेष्ठता को ही नकारते हैं उनसे उम्मीद करना कि इंसानी खून की कोई कीमत होगी, बेकार ही है।

नफरत फैलाने का दूसरा जरिया है अन्य इस्लामी मान्यताओं को खारिज करना। इसी शिक्षा के अनुसार मजारों और कब्रों पर जाना भी इस्लाम के खिलाफ है। पूरे सऊदी पाठ्यक्रम में शुरू से ही बच्चों को यह तालीम दी जाती है। इससे फौरन इस्लामी सिलसिले के तमाम गैर-वहाबी समुदाय इस्लाम से बाहर हो जाते हैं। इतना ही नहीं, वहाबी ऐसा कदम उठा कर खुद कुरान को झुठलाते हैं।

सूरह अल-कहफ में साफ आया है कि ‘‘अल्लाह का वादा सच है यह बताने के लिए इमारत बनाओ’’ (कुरान 18:21)। ऐसी मान्यता है कि कयामत के दिन उसमें से ही मुर्दे निकल कर आएंगे। लेकिन इंसानियत के दुश्मन वहाबी मजारों पर जाने वालों को कत्ल करते हैं और मजार तोड़ने की बाकायदा मुहिम चला रहे हैं। शिया अपने इमामों के लिए जियारत (दर्शन) करने इराक, सऊदी अरब, ईरान सहित अन्य देश भी जाते हैं। सऊदी अरब में अब इस पर रोक लगा दी गई है।

पिछले कुछ वर्षों से वहाबियों ने सिलसिलेवार ढंग से सूफी संतों, शिया समुदाय, अहमदिया मुसलिम और गैर-वहाबी सुन्नी आस्था वाले प्रतीकों पर हमले शुरू किए। इनके हमले केवल इन प्रतीकों पर नहीं हुए, मक्का स्थित काबे के पीछे के हिस्से को भी इन्होंने ध्वस्त कर दिया। वहां पर बड़े-बड़े होटल और शॉपिंग मॉल बनाने शुरू किए। इनमें पेरिस हिल्टन का शॉपिंग मॉल मुख्य आकर्षण का केंद्र है। काबा के अलावा मदीना में इन्होंने मोहम्मद के परिवार और साथियों की मजारें और कब्रें तोड़नी शुरू कीं। इनमें मोहम्मद की बेटी फातिमा, अबू बकर और उमर की मजारें और मस्जिदें प्रमुख हैं।

सूफी मजारों पर हमले तमाम हदों को पार कर गए। माली में 333 सूफी संतों की मजारों वाले मशहूर स्थल को वहाबियों ने ध्वस्त कर दिया। 1988 में यूनेस्को से विश्व-धरोहर के रूप में मान्यता-प्राप्त सिद्दी याहिया मस्जिद भी इन वहाबी हमलों की भेंट चढ़ी। लीबिया में पचास सूफी मजारों को इन वहाबियों ने एक साथ उड़ा दिया। सोमालिया में शायद ही सूफी संतों का कोई मजार बचा हो जो अल-शबाब के हमलों का शिकार न हुआ हो। पाकिस्तान में बाबा फरीद, बाबा बुल्लेशाह, हजरत दाता गंजबख्श सहित अनेक मजारों पर लगातार वहाबी तालिबानी हमले हुए।

सऊदी अरब समर्थित ये हमले अल-कायदा और उसके सहयोगी संगठन अंजाम देते आए हैं। वहाबियत पूरी तरह से फासीवादी विचारधारा में ढल चुकी है जो इस धरती से मोहब्बत का नाम मिटा देना चाहती है। जरा एक नजर देखें कि वहाबियत का इस्लाम जो कर रहा है उसके बरक्स सूफी मत कैसा पैगाम दे रहा है।

निजामुद्दीन औलिया के बारे में मशहूर है कि बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने उनसे इस्लाम का प्रचार करने के लिए कश्मीर जाने को कहा। निजामुद्दीन का जवाब था कि मैं मोहब्बत का पैगाम देता हूं, मेरे लिए मुमकिन नहीं कि इस्लाम का प्रचार करने कश्मीर जाऊं। इसके बाद अलाउद्दीन ने अमीर खुसरो के जरिए निजामुद्दीन को दरबार तलब किया। निजामुद्दीन ने पैगाम भेजा कि जो सूफी सत्ता के नजदीक जाता है वह ईमान खो बैठता है। अलाउद्दीन ने कहलाया कि मैं खुद आ रहा हूं। निजामुद्दीन ने कहा, मेरी खानकाह में आने पर किसी को रोक नहीं, मगर मेरी खानकाह के दो दरवाजे हैं। जिस वक्त एक दरवाजे से बादशाह के कदम मेरी खानकाह में पड़ेंगे, उसी वक्त दूसरे दरवाजे से मैं निकल जाऊंगा।

बाबा बुल्ले शाह। मोहब्बत का पैगाम देने वाले इस सूफी को कौन नहीं जानता। जरा देखिए क्या है मजहब इनकी नजर में। ‘‘होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह/ नाम नबी की रतन चढ़ी, बूंद पड़ी इल्लल्लाह/ रंग-रंगीली उही खिलावे, जो सखी होवे फना-फी-अल्लाह/ होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह/ अलस्तु बिरब्बिकुम पीतम बोले, सभ सखियां ने घूंघट खोले? कालू बला ही यूं कर बोले, ला-इलाहा-इल्लल्लाह/ होरी खेलूंगी कह कर बिस्मिल्लाह।’’

वारिस शाह की हीर आज भी मोहब्बत का पैगाम बनी हुई है। सितार की ईजाद करने वाले अमीर खुसरो फरमाते हैं: ‘‘काफिर-ए-इश्कम मुसलमानी मरा दरकार नीस्त/ हर रग-ए-मन तार गश्ता हाजत-ए-जुन्नार नीस्त’’ (इश्क का काफिर हूं मुसलमान होना मेरी जरूरत नहीं। मेरी हर रग तार बन चुकी है मुझे जनेऊ की भी जरूरत नहीं)।

वहाबी मत ने पिछले लगभग दो दशक में न सिर्फ मासूम इंसानों का खून बहाया है बल्कि मोहब्बत का भी खून किया है। इस महाद्वीप में निजामुद्दीन औलिया, मोइनुद्दीन चिश्ती, अमीर खुसरो, वारिस शाह, बुल्लेशाह, बाबा फरीद जैसे सूफी संतों ने धार्मिकता की कट्टर जंजीरें तोड़ते हुए सिर्फ और सिर्फ मोहब्बत का पैगाम फैलाया था। वहाबी आंदोलन इन संतों की मजारों को रौंदता हुआ इनके मोहब्बत के पैगाम का भी गला घोंट रहा है। और इसके लिए सऊदी अरब बेपनाह धन खर्च कर रहा है।

जो देश अपने स्कूलों में नफरत की शिक्षा देगा, वहां से निकलने वाली विचारधारा और उस विचारधारा के वाहक ऐसे शिक्षा संस्थानों से निकलने वाले विद्यार्थी क्या गुल खिला सकते हैं इसका अंदाजा अफ्रीका, अरब देशों, दक्षिण एशिया और यहां तक कि पश्चिमी देशों में चल रहे खूनी खेल से लगाया जा सकता है। सऊदी अरब जैसे देश और दारुल उलूम जैसे शैक्षणिक संस्थानों का यह गठजोड़ आज सारी दुनिया को बारूद के ढेर पर बिठा चुका है। इससे पहले कि इस बारूद के ढेर को आग लगे, इन वहाबियों और इनकी विचारधारा को साकार रूप देने वाले अल-कायदा और उनके सहयोगी संगठनों का समूल नाश समय की मांग है।

Monday 28 October 2013

संघर्ष और उसकी कीमत का सवाल - गिरिजेश


प्रिय मित्र, 
ज़िन्दगी क़दम-क़दम पर हमारा इम्तेहान लेती ही रहती है. 
ज़िन्दगी हर कदम पर कोई न कोई संघर्ष खड़ा करती ही रहती है. 
हर संघर्ष के दो पक्ष होते ही हैं. 
दोनों पक्षों के बीच एक ही सच हो सकता है. 
सच केवल एक ही पक्ष के साथ रह सकता है. 
दूसरे पक्ष को झूठ का ही सहारा लेना पड़ता है. 
झूठ का हथियार चलाने वाला नैतिक रूप से कमज़ोर हो जाता है. 
उसकी पराजय मूलतः इसी के चलते अपनी ही नज़र में गिर जाने के कारण होती है. 
हर संघर्ष में हमें अपना पक्ष चुनना ही पड़ता है. 
हमारे लिये भी कभी भी अपना पक्ष चुनना इतना आसान नहीं होता. 
पक्ष चुनते ही हमको दो टूक शब्दों में अपने हिस्से का सच बोलना ही पड़ता है. 
सच कहना तो मुश्किल है ही, सच सुनना भी बहुत ही मुश्किल होता है. 
हर संघर्ष हर तरह की यन्त्रणा देता ही है. 
हर संघर्ष हर एक से अपनी कड़ी कीमत वसूलता ही है. 
हमको वह कीमत पूरी दिलेरी से अदा करनी ही होती है. 
हर संघर्ष हमारी क्षमता की परीक्षा करता ही है. 
पक्ष न चुनने वाला भी तटस्थता का पक्ष तो चुनता ही है. 
उसकी चुप्पी और भी ख़तरनाक होती है. 
सामने आ कर वार करने वाला प्रतिभट तो फिर भी बेहतर है. 
चुप्पा दोस्त बोल देने वाले दुश्मन से भी अधिक खतरनाक होता है. 
बोलता तो वह भी है. 
शुरू में वह दोनों में से किसी एक के परास्त होने की प्रतीक्षा कर रहा होता है. 
और तब विजेता के साथ खड़ा होकर पराजित का उपहास करने के लिये ही बोलता है. 
अन्दर से वह केवल एक घिनौना चाटुकार होता है. 
चाटुकार को कोई भी प्यार नहीं करता. 
चाटुकार को कोई भी प्यार कर ही नहीं सकता. 
उससे हर आदमी नफ़रत ही करता है. 
मगर वह भी अपनी फ़ितरत से मजबूर होता है. 
उसके अन्दर न तो सच बोलने का और न ही अपना पक्ष चुन सकने का साहस होता है. 
लड़ कर मरना सड़ कर मरने से बेहतर है.
इसी लिये संघर्ष में हिस्सा लेना पलायन से बेहतर है.
हर संघर्ष हमारी क्षमता को बढ़ाता भी है. 
हारने पर हमारी ज़िद बढ़ती है और जीतने पर हमारा हौसला बढ़ता है. 
इतिहास विजेता के पक्ष में लिखा तो जाता है. 
मगर पराजित योद्धा के तेवर को भी इतिहासकार सलाम करते रहे हैं. 
आने वाली पीढ़ियाँ उससे ही अधिक प्रेरणा लेती रही हैं. 
शहादत की अपनी अलग ही इज्ज़त, तेवर और शान है. 
विजय का गौरवगान करने वाले भी तभी उसको इज्ज़त से नवाजते हैं, 
जब विजय इन्सानियत की ख़िदमत में इन्साफ और सच के साथ खड़ी होती है. 
वरना चाटुकार चाहे जो भी कहें, जन तो उससे नफरत ही करता है.
मैंने सामने आने वाले हर संघर्ष में अपना पक्ष चुनने की जीवन भर भरपूर कीमत अदा किया है. 
वह कीमत मैं आज भी अदा कर रहा हूँ और आगे भी करते रहने के लिये संकल्पबद्ध हूँ.
आपका अपने बारे में क्या मत है ?
अभी बस इतना ही...
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका अपना गिरिजेश.

यह क्रूरता कहां से आती है - खुर्शीद अनवर






Khurshid Anwar - "तुम साज़िशें रचो. क़लम नहीं रुकेगी. तालिबानी कमीनगी का एक और रंग"
जनसत्ता 28 अक्तूबर, 2013 : "धार्मिक कट्टरता जब तमाम सीमाएं तोड़ने लगती है तो सबसे पहले महिलाओं को निशाने पर लेती है। कभी उनका पूरा दमन करके कभी उनको इस्तेमाल करके। जो बातें वेदों में, ‘मानस’ में कहीं नजर न आएं उनको मनगढ़ंत स्मृतियों में और रोज पैदा होने वाले उपदेशों में देख लें। ताज्जुब है कि इनमें समानता भी बहुत होती है। मसलन, हिंदू मान्यता में धर्मजनित अंधविश्वास कि मासिक धर्म के दौरान महिलाओं के लिए क्या-क्या वर्जित है, इस्लाम में भी देखा जा सकता है। मगर इसे ज्यादा तूल देने के बजाय देखना यह है कि किस तरह धार्मिक कट्टरता पागलपन का रूप लेती है। वहाबियत ने ठीक वही काम किया। हमारे देश में जो हो रहा है उसकी झलक खुद-ब-खुद मिल जाएगी।

आठ अप्रैल 1994 को संयुक्त राष्ट्र ने मानवाधिकारों से संबंधित रिपोर्ट पेश की, जिसमें अफगान तालिबान ने महिलाओं पर जो बंदिशें लगार्इं उनकी एक लंबी सूची है। यहां उनमें से कुछ बिंदु पेश किए जा रहे हैं। पुरुष डॉक्टर के पास जाने पर पूरी पाबंदी। सिर से पैर तक बुर्के में ढंके रहना। घर से बाहर काम करने पर पूरी पाबंदी। पुरुष दुकानदारों से सामान न खरीदना। अगर टखने खुले दिख जाएं तो कोड़ों से उनकी पिटाई। उन्हें कोड़े मारना अगर वे तालिबान द्वारा निर्धारित लिबास न पहनें, सार्वजनिक रूप से उनकी पिटाई और गालियां। पति के अलावा किसी अन्य पुरुष से संबंध पर संगसारी करके मार देना। जोर से हंसने पर पाबंदी। रेडियो, टेलीविजन या किसी सार्वजनिक स्थल पर महिलाओं की मौजूदगी पर पाबंदी। साइकिल, मोटर साइकिल और कार चलाने पर पाबंदी। ईद या अन्य त्योहारों पर या मनोरंजन के लिए महिलाओं के इकट्ठा होने पर पाबंदी। तमाम शीशों की खिड़कियों पर पेंट करवाया जाना, जिससे औरतें बाहर न देख सकें। यहां सारे बिंदु देना संभव नहीं, क्योंकि सूची बहुत लंबी है। यानी महिलाओं को सिर्फ और सिर्फ चलती-फिरती लाश में तब्दील कर देना।

यहां दो तथ्यों का उल्लेख आवश्यक है। पहला यह कि इनमें से अधिकतर शरिया कानून महिला उत्थान की अलंबरदार मानी जाने वाली रब्बानी-मसूद सरकार के जमाने में अफगानिस्तान में नाफिज किए गए, जिनके कुछ उदाहरण यहां पेश किए जाएंगे। दूसरी अहम बात यह है कि महिलाओं के लिए बने इन तालिबानी कानूनों का आधार सऊदी अरब के वहाबी आस्था के कानून और स्कूलों के पाठ्यक्रम हैं।

रब्बानी-मसूद सरकार के दौरान महिलाओं पर वहाबी-तालिबानी क्रूरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1978 से मसूद ने सोवियत संघ के खिलाफ जंग छेड़ी और सोवियत संघ के विघटन के बाद गुलबुद्दीन हिकमतयार से जंग के दौरान सऊदी अरब ने सय्याफ और इत्तेहाद-ए-इस्लामी को जब वहाबी विचारधारा को फैलाने के लिए समर्थन दिया तो मसूद ने उसका स्वागत किया और फिर सिलसिला चला वहाबियत की स्त्री विरोधी विचारधारा के अफगानिस्तान में प्रसार का, और संयुक्त राष्ट्र में पेश किए गए दस्तावेज में मसूद की भागीदारी की सनद। आठ अप्रैल 1994 को प्रस्तुत इस रिपोर्ट में मसूद सरकार की बड़ी भूमिका थी। औरतों पर जुल्म जो सामने न आया। 1979 से लेकर अगले पांच वर्ष तक उच्च स्तर तक महिला शिक्षा नब्बे फीसद हो चुकी थी। बंदिशों के आने के बाद 1992-93 तक महिला शिक्षा घट कर तीस फीसद हो गई, जबकि इसमें भी वे महिलाएं शामिल हैं जिन्हें शिक्षा 1979 के बाद के पांच वर्षों में मिली थी।

पतियों के जुल्म से केवल हेरात में इस दौरान नब्बे महिलाओं ने आत्महत्या की। (संयुक्त राष्ट्र दस्तावेज ) ऊपर से क्रूर मजाक। सीआइए ने मसूद की चे-गेवारा से तुलना की। लेकिन देखिए यही जिहादी तालिबान इन्हीं महिलाओं का इस्तेमाल अपने मकसद के लिए कैसे करते हैं! तालिबानी कारी जिया रहमान ने, जो कुनार और नूरिस्तान (अफगानिस्तान) और बाजौर और मोहम्मद (पाकिस्तान) में महिला आत्मघाती दस्ते का प्रशिक्षण शिविर चलाता है, अब तक कई महिलाओं को आत्मघाती हमले में इस्तेमाल किया है। यहां से फरार दो लड़कियों ने इसकी सूचना पाकिस्तान सरकार को दी, लेकिन हमेशा की तरह पाकिस्तान ने कोई कार्रवाई नहीं की। इसके फौरन बाद 21 जून 2010 को कुनार में महिला आत्मघाती हमला हुआ। कारी जिया रहमान ने खुशी का इजहार करते हुए हमले की तस्दीक की। इसके बाद 24 जून 2010 को बाजौर में अगला महिला आत्मघाती हमला हुआ जिसमें चालीस नागरिकों की जान गई। सिर्फ 2010 में पख्तूनख्वा के खैबर सूबे में बमबारी की उनचास घटनाएं हुर्इं, जिनमें बाजौर (पाकिस्तान) में विश्व खाद्य कार्यक्रम पर हुआ एक महिला आत्मघाती हमला शामिल नहीं है।

वर्ष 2011 से ‘बुर्का बमबारी’ का दौर शुरू हुआ। इसे तालिबान ने ‘मुजाहिदा सिस्टर्स’ का नाम दिया। इस नई तर्ज के हमले में बुर्के में अक्सर मर्द भी आकर बमबारी करते रहे लेकिन मुख्यत: आत्मघाती हमलों की जिम्मेदारी औरतों की ही रही। चार जून 2011 को कुनार (अफगानिस्तान) में फिर महिला आत्मघाती हमला हुआ, जिसकी जिम्मेदारी लेते हुए तालिबान ने कहा कि ‘मुजाहिदा सिस्टर्स’ ने यह काम अंजाम दिया। इसी साल अगला हमला डेरा इस्माइल खां में हुआ। महिला आत्मघाती हमलों का नातमाम सिलसिला रुका नहीं। ये वही इस्लाम के ठेकेदार हैं जिनके अनुसार महिलाओं के जोर से हंसने पर पाबंदी होनी चाहिए। रेडियो, टेलीविजन या किसी सार्वजनिक स्थल पर महिलाओं की मौजूदगी पर पाबंदी होनी चाहिए। साइकिल, मोटर साइकिल और कार के चलाने पर पाबंदी होनी चाहिए। तमाम शीशों की खिड़कियों पर पेंट करवाया जाना चाहिए जिससे औरतें बाहर न देख सकें।

आत्मघाती हमलों के समय ये नियम कहां चले जाते हैं? औरतों के प्रति इस दोहरे रवैए को तालिबान की मक्कारी और इनके सरपरस्त वहाबी पैरोकारों के दोमुंहेपन के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। एक तरफ सऊदी अरब की वहाबी सरकार और इनके आतंकी संगठन महिलाओं को गुलाम से बदतर जिंदगी देने वाले नियम बनाते हैं, दूसरी तरफ यही औरतें ‘मुजाहिदा’ कहलाने लगती हैं। महज इस्तेमाल की शय हैं इनकी नजर में औरतें और ये वहाबी और आतंकी खुद को इस्लाम का सही पैरोकार बताते हैं। क्या इनका कुरान अल-वहाब के आने के बाद अठारहवीं सदी में नाजिल हुआ? जो कुरान मोहम्मद साहब के वक्त नाजिल माना जाता है उसमें तो ऐसा कुछ नजर नहीं आता। यह है राजनीतिक इस्लाम, जिसका मजहब और कुरान-हदीस से कोई लेना-देना नहीं।
इनकी हैवानियत का दूसरा रुख देखिए। जरा कोई आलिम बताए कि कुरान या किस हदीस में लिखा है कि मासूम बच्चों के गले में बम लगा कर उसे इंसानी और खुद का कत्ल करने को तैयार करो? लेकिन इनका इस्लाम यही करता है। मासूम गरीब बच्चों को और उनके घरवालों को जन्नत के ख्वाब दिखा कर और कुछ पैसे देकर आत्मघाती हमले के लिए तैयार करना अल-कायदा और तालिबान का ऐसा घिनौना काम है जिससे सारी मानवता का सिर शर्म से झुक जाना चाहिए। 4 नवंबर 2008 को संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में न केवल इस बात की तस्दीक की बल्कि इसकी भर्त्सना भी की कि तालिबान और अल कायदा दस से तेरह साल के बच्चों को आत्मघाती दस्ते में शामिल करके उन्हें प्रशिक्षण दे रहे हैं।

ग्वांतानामो की संयुक्त खुफिया एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार तालिबान का मानना है कि ये बच्चे चूंकि तर्क के आधार पर सोच नहीं सकते इसलिए शहीद बनने के लिए आसानी से तैयार हो सकते हैं। इसके लिए इनके दिमाग में जहर भरा जाता है और इन्हें पूरी तरह से असंवेदनशील बना दिया जाता है। खुद अफगानिस्तान की सरकार ने यह माना कि इन बच्चों को मुसलमानों, मुसलिम औरतों और बच्चों को यातना देने के वीडियो दिखाए जाते हैं जिससे कि इनका खून खौले और ये बदला लेने के लिए आतुर हों।

अफगानिस्तान की सरकार ने भी सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार किया कि ये बच्चे सात हजार डॉलर से चौदह हजार डॉलर की कीमत पर खरीदे जाते हैं और मां-बाप को कहा जाता है कि सिर्फ पैसा नहीं मिलेगा, आपका बेटा इस्लाम के नाम पर शहीद होकर सीधे जन्नत पहुंचेगा।

अल कायदा और तालिबान के लोग बेशर्मी की किस हद तक जा रहे हैं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कुनार और नूरिस्तान इलाके में जब बच्चा पूरी तरह से आत्मघाती कार्रवाई के लिए तैयार हो जाता है तो उसे दूल्हे की तरह सजा कर घोड़े पर बैठा कर पूरे गांव में घुमाया जाता है और गांव के लोग, जिनमें कुछ तालिबान के डर की वजह से या फिर उनके समर्थक होने के कारण, बच्चे के मां-बाप को मुबारकबाद देने आते हैं। इन कम-उम्र बच्चों की संख्या पांच हजार से सात हजार के बीच खुद पाकिस्तान सरकार ने स्वीकार की है।

पाकिस्तान के गृह मंत्रालय (इंटीरियर मिनिस्ट्री) के अनुसार पिछले दो साल में 2488 आतंकवादी घटनाएं घटी हैं जिनमें लगभग चार हजार लोग मारे गए हैं। इनमें से अधिकतर आत्मघाती हमले कमसिन बच्चों द्वारा किए गए हैं। तालिबान ने फिदायीन-ए-इस्लाम नाम से पाकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा पर वजीरिस्तान में ऐसे तीन प्रशिक्षण शिविर तैयार किए हुए हैं जिनमें हजारों की तादाद में कम-उम्र बच्चे प्रशिक्षण पा रहे हैं। आतंकवाद के आज तक के इतिहास में इतने बर्बरता भरे सोच की मिसाल मिलना नामुमकिन है। इस पूरे इलाके में फैली अशिक्षा और अकल्पनीय गरीबी का फायदा उठा कर ये सारे काम अंजाम दिए जाते हैं।

वहाबियत का यह चेहरा किस कोण से इस्लामी चेहरा हो सकता है? गरीब का पेट भरना, गरीबी दूर करना, अशिक्षा दूर करना इन्हें इनका इस्लाम नहीं सिखाता। इनका इस्लाम सिखाता है ऐसी स्थिति का फायदा उठा कर मासूम इंसानों का खून बहाना। यह नया इस्लाम है। वहाबी इस्लाम। इसकी जड़ में मजहब नहीं राजनीति है। और जब मजहब और राजनीति का मेल होता है तो इंसानियत मौत के दरवाजे पर नजर आती है। वहाबियत और इनके आतंकी संगठन मजहब के नाम पर राजनीतिक इस्लाम स्थापित कर रहे हैं जिस पर लगाम नहीं लगी तो एक नए फासीवाद का जन्म निश्चित है।"

Saturday 12 October 2013

दुर्गा-महिषासुर मिथक का सच - गिरिजेश


प्रिय मित्र, कृपया अब मेरी बात सुनिए ! मिथक उस कथानक को कहते हैं, जिसे इतिहास के पहले की घटना के सहारे साहित्यकार गढ़ता है. प्रागैतिहासिक काल की ऐसी किसी भी घटना का काल-खण्ड निर्धारित करना दुरूह होता है. जब कल्पना और इतिहास दोनों ही हमारी थोड़ी-बहुत मदद करते हैं, तभी हम मिथकों के पात्रों के अतिमानवीय आभा-मण्डल को भेद कर उनका मानवीकरण कर पाते हैं. मैं भी ऐसा ही एक प्रयास कर रहा हूँ. इसकी विश्वसनीयता के लिये हमें साहित्य और पुरातात्विक अध्ययन का सहारा लेना पड़ेगा.

भारतीय इतिहास के प्रथम चरण - प्राक्वैदिक और वैदिक काल के अध्येताओं की एक धारा के अनुसार आर्य इस देश के मूल-निवासी नहीं माने जाते हैं. इस धारा के अनुसार आर्य मध्येशिया से भारत भूमि पर आये हैं. आर्य नस्ल अपने गोरे रंग, सुनहरे बाल, नीली आँखों और नुकीली नाक के साथ ही लम्बे कद के लिये भी जानी जाती है. इसके विपरीत इस भूमि के मूल-निवासियों की चपटी नाक, काला रंग, काली आँखें, काले-घुँघराले बाल और नाटा कद उनकी पहिचान बनाता है. 

मूल निवासियों और आक्रामक आर्यों के बीच अनेक पीढ़ियों तक रक्त-रंजित युद्ध लगातार चलता रहा. मूल निवासियों की सभ्यता-संस्कृति का धरातल अपेक्षाकृत अधिक उन्नत था. उनके प्रमाण हमें मोहेंजोदड़ो और हड़प्पा से उपलब्ध हैं. वे नगर, भवन, दुर्ग निर्माण की कला के विशेषज्ञ थे. उनका देवता अथर्वण था और उनका वेद अथर्व वेद. जिसको अनार्य होने के चलते ही अपने उपवेद आयुर्वेद के साथ ही आर्यों की दृष्टि में उस सम्मान का पात्र नहीं माना जाता था, जो वेद-त्रयी को मयस्सर था. 

आर्यों के नेता वशिष्ठ और अनार्यों के नेता शम्बर के बीच चले युद्ध में शम्बर के सौ दुर्गों और शम्बर की पराजय के साथ ही उन दुर्गों के पतन का विवरण उपलब्ध है. युद्ध में अनार्यों की पराजय के पश्चात भी दोनों ही पक्षों को एक-दूसरे के साथ जीना पड़ा. पराजित अनार्य आर्यों के दास बनने को बाध्य हुए. दासता के बावज़ूद वे अपने उन्नत मस्तिष्क के सहारे आर्यों को कला-साहित्य-संस्कृति के विविध पक्ष सिखाते रहे.

इसी बीच विश्वामित्र ने गायत्री मन्त्र के सहारे अनार्यों को भी आर्य बनाने का काम शुरू किया. यह दोनों नस्लों के मध्य समन्वय स्थापित करने के लिये किया जाने वाला एक प्रयास था. इस प्रयास के परिणाम स्वरूप दोनों नस्लों के परस्पर घुल-मिल जाने के पश्चात ही साँवले रंग के, लम्बे, घुँघराले बालों, काली आँख और नुकीली नाक वाले आर्यों की उत्पत्ति हुई, जिनके वंशजों को राम और कृष्ण के रूप में मिथक साहित्य में हम देख पाते हैं.

परन्तु शम्बर की पराजय के साथ ही युद्ध समाप्त नहीं हो सका. अन्य द्रविण योद्धाओं ने अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये युद्ध का नेतृत्व सम्भाला. ऐसे ही अनेक लोकविश्रुत नामों में से चमुरि और महिष ने अपने शौर्य से इतना नाम कमाया कि लोककथा के पात्र बन सके. भले ही उनको खलनायक के रूप में चित्रित किया गया. 

दुर्गा का काल-खण्ड इस काल-खण्ड के बाद का प्रतीत होता है. जब अश्वारोही आर्य केवल घुमक्कड़ी करने के बजाय व्यवस्थित तौर पर बस्ती बनाकर बस चुके थे, तो उन्होंने भी द्रविण आक्रमणों से बचने के लिये दुर्ग बनाने शुरू किये और दुर्ग में रहना आरम्भ किया.

दुर्गा के रूप में हमें मिथक साहित्य से दो सबक मिलते हैं. एक कि जब पुरुष पराजित होने लगते हैं, तो नारी अपना शौर्य प्रदर्शित करती है और युद्ध में शत्रु से पराजित होकर घर लौटे अपने पुरुष को उसकी औकात बता देती है. वह पुरुष-प्रधान समाज व्यवस्था का खुल कर उपहास करती है और अपनी समर्थ उपस्थिति दर्ज कराती है. दूसरा कि आर्यों और अनार्यों के बीच के इस युद्ध को ही देवासुर संग्राम के रूप में बदलने वाले उपासक चाहे जो भी कहें, परन्तु आक्रामक आर्य थे और उनका असुरों पर हमला करना और युद्ध करना उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा करने के मकसद से था और अनुचित था. 

अन्यथा वास्तव में न तो दस सिर वाला रावण सम्भव है और न ही आठ भुजाओं वाली दुर्गा. दोनों ही चरित्रों का हमारे पुरखों द्वारा अतिमानवीकरण किया गया है. हाँ, असुर योद्धा अपने सिर पर शिरस्त्राण के रूप में सींग अवश्य बाँधते थे, जो उनके लिये एक अतिरिक्त हथियार का काम देते थे. परन्तु महिष भी दुर्गा और रावण की तरह ही मनुष्य था. वह भैंसा नहीं था.

दुर्गा को कथानक के मुताबिक सभी देवताओं की सामूहिक शक्ति से उत्पन्न बताया गया है. सिन्दूर केवल हिन्दू नारी के गृहस्थ जीवन के सौभाग्य का ही प्रतीक नहीं है. वह शौर्य का भी प्रतीक है. यही कारण है कि वीर हनुमान की पूरी प्रतिमा ही सिन्दूर से लीपी हुई मिलती है. सामान्य हिन्दू गृहणी अपनी उपासना में अपनी आराध्या देवी दुर्गा से अपने सिन्दूर की सुरक्षा का वरदान माँगने की कामना से उनको सिन्दूर चढ़ाती हैं. और साज-सज्जा के प्रश्न पर केवल इतना ही कहा जा सकता है कि योद्धा रणक्षेत्र में मारने-मरने का संकल्प करके उतरता है. उसका वेश सन्यासी वैरागियों की तरह हो ही नहीं सकता. वह अपनी पूरी सज्जा के साथ आर-पार का समर लड़ने जाता है और दुर्गा का वेश और श्रृंगार इसका अपवाद कैसे हो सकता है ? 

आप मेरी ओर से इस पोस्ट की खुले मन से आलोचना करने के लिये न केवल स्वतन्त्र हैं, अपितु सादर आमन्त्रित भी हैं. 
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश 

कृपया इस लेख को पढ़ें और विचार करें. सन्दर्भ के लिये यह पोस्ट देखें.

https://www.facebook.com/girijeshkmr/posts/10200898838541041?ref=notif&notif_t=like

Jitendra Yadav - "जिज्ञासाः दुर्गा जब कुंवारी हैं तो उन्‍हें सिंदुर क्‍यों चढाया जाता है. दुर्गा को मां कहा जाता है. कुंवारी दुर्गा मां कैसे हो गई. दुर्गा ने तो ब्‍याहता कन्‍या की तरह सिंगार कर रखा है. आशा है आप मेरे प्रश्‍न का सामाधान करेंगे.
बहरहाल, 17 अक्‍टूबर को 3 बजे जेएनयू के सामाजिक विज्ञान सभागार में महिषासुर शहादत दिवस का अयोजन किया गया है. 'हिन्‍दू मिथक और बहुजन परंपराएं' विषय पर बात करने के लिए कांचा इलैया, उदित राज, प्रेमकुमार मणि, तुलसी राम, रमणिका गुप्‍ता, चंद्रभान प्रसाद, चमनलाल समेत देश के कई विद्वान आ रहे हैं. आप भी सांस्‍कृतिक आंदोलन में अपनी भागीदारी सुनिश्चित किजिए."

समाज में सक्रिय विभिन्न धाराओं पर एक विहंगावलोकन - गिरिजेश


प्रिय मित्र, हमारे समाज में विभिन्न वर्ग हैं. उन वर्गों के हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिये विभिन्न धरातलों पर विभिन्न शक्तियाँ सक्रिय हैं. ऐसा ही एक क्षेत्र है संस्कृति का. सांस्कृतिक मंच पर भी वैचारिक द्वंद्व सतत जारी रहता है. आइए, इन सभी धाराओं की पड़ताल करने का प्रयास करें और देखें कि इनके सहारे कैसे इस जन-विरोधी पूँजीवादी समाज-व्यवस्था के शोषक-शासक वर्ग जन-सामान्य को अलग-अलग टुकड़ों में तोड़ने में, उनके बीच परम्परा से चलती आ रही नफ़रत की खाई को और गहरा करने में और उनको आपस में ही एक दूसरे के साथ लड़ाने में सफल हैं. और इसीलिये उनका लुटेरा राज अबाध रूप से चलता जा रहा है.

इनमें एक ओर सबसे ताकतवर धारा के रूप में खड़ा ब्राह्मणवाद है, जो अन्ध हिन्दूवादी राजनीति का भगवा झंडा लिये अतीत के गुणगान में मगन है. उसकी आँखों पर अन्ध आस्था की पट्टी बंधी हुई है. किसी का भी किसी भी तरह का विरोध उसे सह्य नहीं है. उसके पास कोई तर्क नहीं है. विज्ञानं के वर्तमान युग में हज़ारों वर्ष पहले कल्पना के सहारे रचे गये उसके अधिकतर शास्त्र अपनी उपयोगिता खो चुके हैं. शास्त्रों के अक्षम सिद्ध होने की दशा में शस्त्रों का ही सहारा बचता है. अफ़वाह फैलाने और झूठ बोलने में उनसे अधिक दक्ष कोई नहीं है. इसके साथ ही दंगा करने में उनको विशेष विशेषज्ञता प्राप्त है. और उनके शस्त्रागार में सबसे सशक्त शस्त्र है गालियों का अबाध प्रवाह.

दूसरी ओर कट्टर मुसलमानों की कतार खड़ी है. वे केवल कुरआन और शरीयत को ही एकमात्र सत्य मानने को बज़िद हैं. उनका झंडा हरा है और उनका नारा जेहाद है. वे पूरी धरती पर इस्लामिक राज्य बनाने के लिये मरना-मारना चाहते हैं. वे भी अपनी अन्धी आस्था की जड़ता के शिकार हैं. उनको भी कोई तर्क सहन नहीं होता. वे भी अपना विरोध करने वालों के लिये खूब गाली बकते हैं. बेगुनाहों का खून बहा कर उनके अन्दर डर पैदा करने के लिये दंगा और आतंकवादी हमला उनका भी प्रिय खेल है.

कट्टर मुस्लिम धारा कट्टर हिन्दू धारा को और कट्टर हिन्दू धारा कट्टर मुस्लिम धारा को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानती है और आपस में एक दूसरे का क़त्ल-ए-आम करने के लिये बार-बार दंगों की साज़िश करती रहती है. दंगों का लाभ सीधे वोट-बैंक की राजनीति करने वाले संसदीय राजनीति के सभी दलों के घुटे हुए मक्कार खिलाड़ियों को मिलता है. इसी से वे भी दोनों तरह के दंगाइयों को हरदम शह देते रहते हैं. वे उनको हर तरह से पालते-पोसते रहते हैं.

तीसरी धारा जातिवाद में जीने वालों की है. ये अपनी जाति विशेष की पहिचान को बनाये रखने और जातीय एकता को मजबूत करने के लिये सक्रिय रहते हैं और जातीय लाभ के मुद्दों के सहारे केवल अपनी जाति के ही लोगों को गोलबन्द करने का प्रयास करते रहते हैं. इनमें ब्राह्मण महासभा से लेकर यादव महासभा तक के रंग बिखरे हैं. वोट-बैंक की राजनीति के लिये जातिवाद भी एक महत्वपूर्ण हथियार है. वे इस हथियार का भी अत्यन्त दक्षता के साथ चुनावी समर जीतने के लिये प्रयोग करते हैं. इस हथियार की मार के सामने अच्छे-खासे विद्वान भी आत्मसमर्पण कर देते हैं और इसकी मार के शिकार हो जाते हैं.

जातिवाद की सबसे महत्वपूर्ण धारा है - नव दलितवाद. इस समय नीले झण्डे वाली इस नव दलितवाद की धारा का उभार जारी है. इसके प्रवर्तक और पुरोधा मुख्य रूप से जे.एन.यू. में रहते हैं और अमेरिकी फण्डिंग के सहारे सोचते-लिखते-बोलते-करते हैं. इनका प्रयास है कि कई दशककों पूर्व तक बची हुई सामन्तवादी समाज-व्यवस्था की सोच की हज़ारों वर्षों पुरानी परम्परा के चलते पीढ़ियों से चलते चले आ रहे दलित बनाम सवर्ण के अंतर्विरोध को तेज़ करके श्रम और पूँजी के अंतर्विरोध को छिपाया जाये और समाज के व्यापक हिस्से में इस भ्रम को फैलाया जाये और वैचारिक धुन्ध की स्थिति बनाये रखा जाये कि आज भी इस देश पर पूँजीपति नहीं, ब्राह्मण राज कर रहे हैं. ये अपने आक्रामक पैंतरों में ऐसा दिखावा करते हैं कि इनके हमले का निशाना मुख्य तौर पर हिन्दूवादी हैं. मगर ये मूलतः क्रान्तिकारी धारा और वैज्ञानिक चिन्तन पर निशाना साधते हैं. क्योंकि वैचारिक स्तर पर दिवालिया ब्राह्मणवादियों की तुलना में इनके वैचारिक प्रचार के रास्ते का सबसे सशक्त अवरोध क्रान्तिकारी सोच ही है.

सुधारवाद के सहारे 'चीथड़े पर मखमल का पैबन्द' लगा कर व्यवस्था के द्वारा पैदा की जाने वाली भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, महंगाई, लम्पटई की गन्दगी को ढकने-छिपाने के प्रयास में लगे हुए जयगुरुदेव और आचार्य श्री राम शर्मा के दौर के बाद आज रामदेव से लेकर अन्ना-अरविन्द केजरीवाल तक के प्रशंसककों और अनुगामियों के साथ ही तमाम सामाजिक संगठनों में सक्रिय बुद्धिजीवियों की लम्बी कतार है. इनका मानना है कि इस पार्टी की जगह उस पार्टी का राज आ जाने से सारी समस्या दूर हो जायेगी. ये पूरी निष्ठा और ईमानदारी से मानते हैं कि व्यवस्था तो सही है, केवल कुछ लोग गलत हैं और अगर उन गलत लोगों को सज़ा दे दी जाये, तो सब कुछ सुधर जायेगा. मगर ये मासूम हैं क्योंकि ये इतना सा सच भी नहीं जानते कि व्यक्ति वैसा ही आचरण करता है, जैसा उसका चिन्तन होता है और उसका चिन्तन वैसा ही हो सकता है, जैसी समाज की व्यवस्था होती है. 

नारीवाद की चर्चा के बिना यह लेख अधूरा रह जायेगा. नारीवादियों का मानना है कि नारी-पुरुष विवाद के हर मामले में हर पुरुष हर बार केवल गलत है और पूरित तरह से नारी-विरोधी है. और हर नारी हर बार पूरी तरह से सही है. इनकी समझ है कि पुरुष-प्रधान समाज-व्यवस्था में हर नारी अवश्यमेव उत्पीड़ित ही है और हर पुरुष अनिवार्यतः उत्पीड़क. इनके संघर्षों और इनकी रचनाओं की धार केवल पुरुषों के विरुद्ध है, व्यवस्था के विरुद्ध नहीं. नारी के उत्पीड़न के लिये ये व्यवस्था को नहीं केवल पुरुषों की मानसिकता को ज़िम्मेदार मानती हैं. इनको नारी-उत्पीड़न की घटनाओं के बाहरी लक्षण तो दिखाई देते हैं, मगर असली बीमारी इनकी पकड़ में नहीं आ पाती. शोषक व्यवस्था से सबकी मुक्ति और नारी-पुरुष समानता के लिये क्रान्तिकारी प्रयास की जगह ये अपनी तीखी प्रतिक्रिया में केवल पुरुष दम्भ के विरुद्ध उग्र प्रतिवाद करती रहती हैं.

इन सभी व्यवस्था-पोषक धाराओं के अतिरिक्त व्यवस्था विरोधी धाराओं में एक समाजवादी धारा रही है, जो दशकों पहले खूब सक्रिय और सशक्त हुआ करती थी. और अब अपनी वैचारिक कमज़ोरी के चलते टूट-फूट का शिकार हो चुकी है. इस धारा के समर्थ बुद्धिजीवी लोगों को अभी भी इक्का-दुक्का संघर्षों में सक्रिय और नेतृत्वकारी भूमिका में देखा जा रहा है. इनको समाजवाद और पूँजीवाद दोनों के ही अच्छे गुण पसन्द आते हैं और ये दोनों के बीच का रास्ता खोजने का प्रयास करते रहे हैं. आचार्य नरेन्द्रदेव से लेकर लोहिया तक और जय प्रकाश नारायण से लेकर राज नारायण तक इसके पुरोधा रहे हैं. इस धारा ने वर्तमान संसदीय राजनीति को अनेक निपुण नेतृत्व प्रदान तो किया, मगर अपने अस्तित्व को सम्भाल नहीं सकी.

व्यवस्था का विरोध करने में सबसे सशक्त धारा कम्युनिस्टों की रही है. इनका चिन्तन तो वैज्ञानिक है. परन्तु इनका आचरण अवैज्ञानिक रह गया है. अपना वैचारिक स्तर विकसित न कर सकने के चलते इस धारा में बार-बार विचलन हुआ है और विगत कई दशकों में इसके क्रान्तिकारी अभियानों के विस्तार की जगह केवल संसदवादी दक्षिणपन्थी संशोधनवाद या वामपन्थी बचकानेपन का ही विकास हुआ है. 

इस धारा के तीन मुख्य खण्ड हैं. एक तरफ़ संसदीय पथ के सहारे समाजवाद लाने वाले सी.पी.आई., सी.पी.एम्., सी.पी.आई.(एम.एल. लिबरेशन) जैसे दलों के लोग हैं, तो दूसरी ओर केवल बन्दूक की बोली बोलने वाले अतिवाम के चरमपन्थी उग्रवाद के बचकाने मर्ज़ के शिकार माओवादी पार्टी के क्रांतिकारी. दोनों की अवस्थितियों ने उनको रक्षात्मक पैंतरे के साथ व्यवस्था से लड़ने को बाध्य कर दिया है. दोनों ही अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं और अभी तक किसी उल्लेखनीय सफलता के मुकाम तक नहीं पहुँच सके.

तीसरी धारा उन कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की है, जो जन-दिशा में प्रयासरत हैं. ये जन-जागरण, जन-चेतना, जन-संगठन, जन-आन्दोलन, जन-क्रांति की सोच रखते हैं. मगर इनमें आपस में दशकों से चला आ रहा वैचारिक मतभेद अब तक चरम पर पहुँच चुका है और अब अपनी जीवन्तता और उपयोगिता खो चुका है. ये दशकों तक एक दूसरे के साथ बहस करके थक चुके हैं. इनमें से कोई भी अपनी अवस्थिति से सुई बराबर भी हटने को तैयार नहीं है. इनके बड़बोले नेतृत्वकारी साथी अपने को ही भारतीय क्रान्ति का एकमात्र केन्द्र मान कर बैठे हैं. वे अपने को अनेक में से केवल एक मानने की क्रान्तिकारी विनम्रता की विरासत को पूरी तरह खो चुके हैं और आत्मग्रस्त हो कर दम्भ के शिकार हो चुके हैं.

देश भर में अगणित खण्डों में बिखरे हुए ये क्रान्तिकारी परस्पर एक साथ खड़े होने के लिये अभी तक भी मन बना कर तैयार नहीं हो सके हैं. इनकी जड़ता ने इनमें से अनेक का बेतहाशा पतन भी किया है. परन्तु इन सभी कमियों के बावज़ूद अभी भी केवल ये ही हैं, जिनसे थोड़ी-बहुत उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले दिनों में या तो ये क्रान्तिकारी चेतना के विस्तार में अपनी सकारात्मक भूमिका का निर्वाह करेंगे या इनके नेतृत्वकारी साथियों को उनकी महन्थई की अकड़ के साथ इतिहास के कूड़ेदान में फेंक कर युवा क्रान्तिकारी आगे आयेंगे और परस्पर मतभेदों को दरकिनार करके आपस में एक दूसरे के साथ एकजुट होकर जन-संघर्षों को नये आयाम देंगे. 'आल इण्डिया को-ओर्डिनेशन कमेटी ऑफ़ कम्युनिस्ट रिवोलुशनरीज़' के अगले संस्करण की रचना करेंगे और इसके बाद भारतीय क्रान्ति का नया केन्द्र - एक अखिल भारतीय क्रान्तिकारी पार्टी का गठन कर सकेंगे.

इस सन्दर्भ में यह विचारणीय है कि आज जो युवा तेईस साल की उम्र का है, उसका जन्म उन्नीस सौ नब्बे के दशक में हुआ है. तब जब कि वैश्विक गाँव की डंकल की अवधारणा ने हमारी सामाजिक संरचना में अपना हस्तक्षेप आरम्भ कर दिया था. हमारी इस पीढी को अपनी पिछली पीढी के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही तरह के अनुभवों से वंचित हो कर जंगल के बेतरतीब पौधों की तरह उगना पड़ रहा है. इनको वैज्ञानिक दृष्टि और सटीक दिशा देने का दायित्व जिनके कन्धों पर है, उनके सामने इतिहास की सबसे विकट चुनौती और कार्यभार है कि वे अपने इर्द-गिर्द के युवाओं के बीच अध्ययन-चक्रों की श्रृंखला खड़ी करें. ताकि समवेत स्वर में युवा शक्ति एकजुट होकर युग-परिवर्तन के लिये अगले महा अभियान पर निकल पड़े.
ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश

HARYANA INSAAF SOCIETY - D R Chaudhary

an initiative dedicated to socio-cultural change in Haryana
Dis-honour Killings : Deconstruct the Honour Concept. - INDERJIT SINGH.
The recent cold blooded murder of an adult girl and a boy (Dharmender and Nidhi) on 18 September in Garnawathi village near Rohtak has yet again generated a media debate over unabated crimes of so called honour killings in Haryana and other regions especially of North West India. Another much talked about episode was that of Manoj – Babli who were killed in village Karoda of Kaithal district in June 2007.It should not be construed that no other honour killings have been committed since then. Dozens reported and many more unreported cases have taken place during these years. Two girls have been killed only within a week of the Garnawathi killing . One of the fateful victims was a girl who reportedly eloped with a boy from the Bapa village in Yamunanagar . She was traced, brought back and poisoned and then strangulated by her father and mother on 22 September.

But the recent Garnawathi incident having evoked more anguish is for the reasons of worst kind of cruelty used in the crime as well as the audacity with which this crime was being publically defended by the perpetrators and also by certain other regressive forces including many educated persons too . The other notable development in this context is the prompt spurt in the activities of some caste panchayats who are desperately seeking to deviate the main issue of right to life by mischievously repeating the demand for amending the Hindu Marriage Act 1955 (MHA) which according to them was the reason for the family members and parents who are left with no other 'option' but to kill their kins for their 'sin' of developing a relation within the same gotra or/ and the same village.

The khap panchayats have also attributed crimes against women to the attire they wear like Jeans etc and some of these self- appointed cultural and moral custodians have also declared ban on wearing Jeans and use mobiles. Some khap persons have gone to the extent of inspecting some girls schools in Jhajjar district on October 26 last in order to make sure that their diktats were enforced obediently. Such absurdity of blaming the victims themselves was also on the public display in the aftermath of 16 December Nirbhaya gang rape and murder in Delhi. One important factor, however, still remains missing in the entire debate and having a definite bearing on honour killing is that of identity politics being nakedly resorted to by most of the so called mainstream political parties in Haryana and other states in the recent past.

What has been going on during recent years is the caste consolidation as an electoral strategy in a vulgar competitive mode by various political outfits and other opportunist forces. This factor of caste identity politics consequently converted by RSS/VHP into communal flare up had also played its role in the Muzaffarnagar carnage in UP recently. It is not just by chance that most of the self styled caste bodies have been allotted large plots of prime lands at almost all district headquarters in Haryana by the successive governments in the name of Dharamshalas. Interestingly ,the size of such lands as well as the location depends on the social and political clout the particular caste was enjoing. The agitation for reservation for the Jats and other castes is not that much motivated over the concern for the unemployed youth but aimed at caste consolidation for strengthening the social domination.The increasing instances of attacks on the Dalits and sexual assaults on women too are not unconnected to such pernicious political game at play these days.

The incidents of honour killings, sexual assaults on women, persecution of dalits and minorities have some definite common links with the perpetuation of identity politics and therefore, logical fall-out of caste consolidation as a political agenda. It can be seen gaining more aggressive postures particularly on gaining patronage of the ruling party of the day.

The regressive agenda of caste consolidation has paid more political dividents in recent years by using the Gotra as an emotional tool by the caste panchayats. It is precisely due to the gotra factor that the caste or khap panchayats are deliberately posing same gotra marriages as a major threat to the socio-cultural hierarchy of a particular community. This time again same gotra and same village marriages have been used as a shield in order to defend the ignominy of a most cruel act of murder.

If one goes by their specious argument then why Ved Pal Moan was lynched in Singhwal village of jind district on 23 july 2009 in the presence of police force and a warrant officer of the high court who also was injured. His marriage was neither within the gotra nor within village. The khaps objected to the marriage on the plea that boy and the girl were from the neighbouring villages which was unacceptable according to the customs.

So the demand of amendment of the HMA by prohibiting same gotra and same village marriages would amount to imposition of a social custom followed by a small community also on those regions and communities who have been following different customs in marriages and other social matters. Moreover ,the customs are not something eternal but keep on constantly changing by various social strata, communities, families and individuals with changing life conditions . Further how can anyone force a prospective couple to go for tying a knot only according to the HMA only and not under the Special Marriage Act.

It is a matter of fact that in large parts of Haryana people of some communities do not prefer to marry within the gotra as the cultural notion of brotherhood remains by and large intact .

Traditionally boys and girls of the village community and those belonging to the same gotra are presumed to be brothers and sisters. It is another matter that cases of rapes within the gotra and within the village are not uncommon. But caste panchayats and even the elected panchayats often not only remain tolerant towards cases of rape but they work overtime to stop the aggrieved side from going to the police. They are mostly found defending the culprits and compelling the victims and their families to reach a compromise either at the level of police or turn hostile during the trial in the court. Surprisingly these desperate attempts to prevent the rape cases to be registered in the police also are done under the garb of saving village honour.

They know it well that amendment in the Hindu Marriage act is not only unwarranted but totally impractical as the present legislation is valid for the whole country while the marriage customs are not uniform even in the Haryana what to speak of the entire country as far as so called unacceptability towards same gotra and same village marriages is concerned. But on the contrary a separate law is certainly required against honour crimes. Justification for such legislation is that there is always a deficiency of eye witnesses and other vital evidence needed for conviction of accused who are often none other than the closest relatives of the deceased themselves. It is highly objectionable that Haryana government is opposing the proposed draft legislation against honour crimes mooted by the law ministry and supported by women organisations with AIDWA having made important contribution by submitting a serious draft.

Therefore, the outcry from the khaps etc regarding amendment in the Hindu Marriage Act is nothing but a ploy to protect the patriarchal hegemony and the status quo in which there were deep rooted vested interests of the dominating strata. Raising the bogey of same gotra marriages by posing it as a big threat is shamelessly defending the gruesome murders being committed in the name of honour.

It is true that moral degeneration is pervading fast with the blind consumerism particularly much faster under the neo- liberal dispensation. But this can be countered only by alternative healthy and progressive social movements and not by strengthening caste and other regressive platforms. The false notion of family or community honour must be deconstructed by notions of real honour which lies in respecting women, an end to discrimination of dalits and minority communities. What is really needed is a very powerful social movement in Haryana and other regions against social evils like casteism ,female foeticide, dowry, alcoholism, drug addiction, vulgarisation of culture and for equal rights of women in parental property.

Posted by D R Chaudhary

Wednesday 9 October 2013

सुप्रीम 'पजेसिवनेस ' ?

उलझ गया हूँ . 
अगर कभी हमारी मलका -ए-हयात को हमारी वफादारी पर शको -शुबहा हो जाये ( अगर मान लिया जाए कि अब तक नहीं हुआ है ..) और वे हमें गोली मार दें और फिर हमारे मुर्दे को ले जा कर किसी तंदूर झोंक दें , तो इस से तीन बातें साबित होंगी --

----- वे हम से बेइंतहा प्यार करती हैं ,
----- वे हमारे लिये बेहद पजेसिव हैं जो कि उनके प्यार का एक और सबूत है 
---- इस प्यार की वज़ह से से अगर उन से कोई अपराध या क्रूरता कर बैठती हैं , तो यह एक निजी 'अपराध ' कहलायेगा . मेरे जैसे संदिग्ध बेवफा के कत्ल से कोई समाजी नुक्सान नहीं हुआ है !

आप सहमत नहीं हैं ?
तब अगर ऐसा ही मैं 'उन ' के साथ करूँ तो आप सहमत होंगे ?

मैं मृत्युदंड का पक्का विरोधी हूँ . इसलिए साहनी काण्ड में माननीय अदालत के फैसले का स्वागत करता हूँ . लेकिन इस फैसले के लिए जो तर्क दिए गए हैं , उन से दाम्पत्य , प्यार , पजेसिवनेस और अपराध के बारे में निखालिस बापिष्ट नजरिये पर सब से ऊंची अदालती मुहर बैठ गयी है , और यह फिक्र की बात है .

Tuesday 1 October 2013

मृग-मरीचिका - गिरिजेश


प्रिय मित्र, 
हमारा समाज तरह-तरह की समस्याओं से जूझ रहा है. हमारी सारी समस्याएँ वास्तविक हैं. वे किसी काल्पनिक ईश्वर या प्रकृति के चलते नहीं हैं. उन सबका कारण हमारी वर्तमान सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक व्यवस्था में निहित है. आज जीवन के केन्द्र में मनुष्य नहीं है. मनुष्य की जगह केन्द्र में सिक्का है. सिक्का ही इस व्यवस्था का खुदा है. 

इस झपसट व्यवस्था के झाँसे में फँस कर थोड़ा-सा और, कुछ और कमा लेने की लालच के चलते आज हर एक इन्सान केवल सिक्के की गणेश-परिक्रमा में लीन है. गलत-सही किसी भी तरह से अधिक से अधिक धन-संग्रह ही आज जीवन की सफलता की परिभाषा बन गया है. आज केवल वह आदमी बड़ा आदमी कहा जाता है, जिसके पास अधिक पैसा है. वह पैसा कैसे आया - इससे कोई भी फर्क नहीं पड़ता और पैसा जब भी सामान्य ज़रूरत से बहुत अधिक जुटाया जाता है, तो वह हर तरह से लूट-खसोट करके केवल गलत तरीके से ही जुटाया जा सकता है. सही तरीके से खटने और कमाने पर तो किसी तरह ज़िन्दा रहना ही मुमकिन है. 

इस व्यवस्था को पूँजीवादी व्यवस्था कहते हैं क्योंकि इसमें मुट्ठी भर धनपशु करोड़ों लोगों की गरीबी की मजबूरी का लाभ उठा कर अधिक और अधिक अतिरिक्त पूँजी जुटाने के लिये सारे दंद-फंद करते हैं. इसके चलते ही सुरसा के मुँह की तरह बढ़ती चली जा रही महँगाई डाइन है, जो हमारी मेहनत की कमाई को हड़प कर ले जाती है. इसी के चलते कार्य-सक्षम हाथ-पैर-दिमाग वाले युवा भीषण बेरोज़गारी की अपमानजनक परिस्थिति में फँसे हुए हैं. इसी के चलते हर कदम पर जारी भ्रस्टाचार का बजबजाता नरक है, जो हमें शार्टकट से काम करवा देने के लोभ में उलझा कर लगातार लूट रहा है. 

आज सामान्य जन-गण कांग्रेस की सरकार के धूर्त और पतित नेताओं की अधम हरकतों और बयानों से बुरी तरह से तंग हो चुका है. इसीलिये केवल इस पार्टी की सरकार को उस पार्टी की सरकार से - इस पार्टी के नेता को उस पार्टी के नेता से बदल कर राहत पा लेने के सपने मीडिया द्वारा बेचे जा रहे हैं. इन भ्रामक सपनों को साकार करने के चक्कर में हम में से जो भी लोग इस व्यवस्था के भीतर ही समाधान का रास्ता तलाशने के लिये इधर-उधर भटक रहे हैं. वे पूरी तरह से मासूम हैं. वे कभी रामदेव के पीछे चलते दिखाई देते हैं, तो कभी अन्ना और अरविन्द केज़रीवाल का दामन पकड़ कर वैतरणी पार करना चाहते हैं. 

ऐसे सभी मासूम युवा मात्र मृग-मरीचिका के शिकार हैं. मृग-मरीचिका में पानी नहीं होता, केवल पानी का भ्रम होता है. और प्यास से परेशान मृग इसी भ्रम में फँस कर इधर से उधर तब तक भागता रहता है, जब तक तड़प-तड़प कर उसके प्राण-पखेरू उड़ नहीं जाते. इन्सान का खून पीने वाली यह पैशाचिक व्यवस्था भी पीढी-दर-पीढ़ी हमारे जीवन-सत्व को निरन्तर चूसती रही है और तब तक चूसती रहेगी, जब तक हम इस परजीवी 'अमरबेल' को जड़ से उखाड़ कर फेंक नहीं देते. 

जब यह तन्त्र ही हर तरह से 'धनतन्त्र' है. यह किसी भी रूप में 'लोकतन्त्र' नहीं है. तो फिर तो यह तन्त्र ही जनविरोधी है और सभी जन-समस्याओं का कारण है. तो इसके किसी भी नेता के बस में है ही नहीं कि हमारी किसी भी समस्या का समाधान कर सके.

हमारे प्यारे देश-समाज की समस्या का समाधान न मोदी कर सकते हैं और न ही किसी भी दूसरी संसदीय पार्टी का कोई भी नेता. वे सभी के सभी आपस में मिलजुल कर राष्ट्र के जन-गण को नागनाथ और सांपनाथ की तरह मारक विष का दंश देते रहे हैं और देते रहेंगे. इस देश की जनता को मूर्ख बना कर इसे देशी-विदेशी पूँजी की चारागाह बनाये रखेंगे. इस देश की मेहनतकश जनता को केवल भीषण बेरोज़गारी, महंगाई, भ्रष्टाचार और साम्राज्यवादी देशों के साथ असमान संधियाँ ही ये दे सकते हैं. 

समाधान केवल और केवल क्रान्ति के ज़रिये ही होना है और वह भी केवल शहीद-ए-आज़म भगत सिंह द्वारा दिखाये गये पथ द्वारा - जन-दिशा द्वारा जन-चेतना का विकास और विस्तार करके ही हो सकती है. 

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यह जनविरोधी व्यवस्था ध्वस्त हो - यही हमारी 'ज़िद' है.

तूफ़ानों से कह दो कि गुज़र जायें अदब से,
ये शम्म-ए-बग़ावत है बुझाना नहीं आसाँ...

है कौन-सी औकात, जो आ पाये मुख़ालिफ़, 
हर शै को चुनौती है जरा आजमा के देख! 

है साथ में इन्सानियत की सारी विरासत, 
ये मौत से टकराने के अरमान की ज़िद है; 

हम ख़ून बेचकर भी हैं रोटी नहीं पाते, 
तुम खू़न पिया करते हो और सुर्खरू भी हो! 

है ख़ून सुर्ख़, सुर्ख़ ही परचम है हमारा, 
अब फिर से ‘सुर्ख़ दौर’ दिखाने की ही ज़िद है; 

हम कब्र तुम्हारे ही लिए खोद रहे हैं, 
अब वक्त को बीमार बनाना नहीं आसाँ... 

अब और तंग-हाल नहीं जीयेगा इन्साँ... 
खुशहाल ज़माने को बनाने की ही ज़िद है। 

वह दौर अब करीब है जब सारे जहाँ में, 
दौलत को हुकूमत की जगह नहीं मिलेगी । 

ज़िद ने अगर हर बार ही इतिहास बनाया, 
फिर से नया इतिहास बनाने की ही ज़िद है । 

ढेर सारे प्यार के साथ - आपका गिरिजेश